दास और गुलाम प्रथा के विरोध में न जाने विश्व में कितने आंदोलन हुए, लेकिन आजादी के छह दशक बीतने के बाद भी भारत में लाखों लोग घरेलू नौकर के रूप में पशुओं से भी बदतर जीवन जीने को विवश हैं। मानवाधिकार दिवस पर शुक्रवार को देशभर में आयोजित कार्यक्रमों में मानवाधिकार विशेषज्ञों, मानव मात्र के पैरोकारों और बुद्धिजीवियों ने मानवाधिकार की रक्षा के बारे में बड़ी-बड़ी बातें कीं। ऐसा होना भी चाहिए। आखिर आदमी ही तो आदमी के काम आता है। इसलिए मानवाधिकारों के हनन पर चिंता जताया जाना भी चाहिए।
मैं यहां दूसरे मुद्दे पर मुखातिब हूं और मेरा मानना है कि इस मुद्दे पर भी बात की जानी चाहिए। आए दिनों मीडिया में घरेलू नौकरों की ओर से किए जाने वाले अपराधों की खबरें आती रहती हैं। इनमें एकमत से किस्मत के मारे इन नौकरों को अविश्वसनीय, बेईमान, गद्दार, मौकापरस्त आदि विशेषणों से विभूषित किया जाता है। कोई भी यह सोचने की जुर्रत नहीं करता कि आखिरकार कौन से हालात उस बालक, किशोर या युवा को घरेलू नौकरी करने पर विवश करते हैं और किसी घर में नौकरी करते हुए एक लंबी अवधि बिताने के बाद वह क्योंकर अपराध करता है। जहां तक मैं समझता हूं, इन घरेलू नौकरों के साथ कहीं भी (अपवादस्वरूप दो-चार प्रतिशत को छोड़कर) अपनापन का व्यवहार नहीं किया जाता। आजकल तो बड़े घरानों में श्वान भी राजसी ठाठ से जीते हैं और उनकी देखरेख के लिए नियुक्त नौकर कुत्तों से भी बदतर जीवन जीने को बाध्य होते हैं।
घरेलू नौकर इन बड़ी अट्टालिकाओं में मालिकों को लाखों-करोड़ों में खेलते देखता है। मजबूरी के मारे कभी वह मालिक से अपनी तनख्वाह बढ़ाने की गुजारिश करता है तो उसे सिरे से नकार दिया जाता है। मालिकों के लिए भांति-भांति के व्यंजन बनाने वाले नौकर को अक्सर बासी, जूठे और बचे-खुचे भोजन से ही अपना पेट भरना होता है। ऐसे में कई बार उनकी सहनशक्ति जवाब दे जाती है और वे मालिकों से मुक्ति पाने या फिर उनके समकक्ष आने के लिए मौका देखकर अपराधों को अंजाम दे देते हैं।
चूंकि यह कदम भावावेश में उठाया गया होता है और पुलिस से बचने की तिकड़मों से अनजान ये बेचारे शीघ्र ही गिरफ्त में भी आ जाते हैं। इसके बाद इनकी यातना का दौर शुरू होता है। इनकी पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं होता और न ही ये वकीलों के जरिये अदालत में अपना पक्ष रख पाते। अपराधियों को दंड देने का मैं कतई विरोध नहीं करता, लेकिन यह अपराध को मिटाने का उपाय नहीं है। ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए, जिसमें किसी के अपराधी बनने के मूल कारणों को खोजा जाए और उसे सुधारने के पर्याप्त अवसर दिए जाएं। उसे रोजगारोन्मुखी शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उसके पुनर्वास के समुचित प्रयास किए जाएं। हां, इतना अवश्य किया जा सकता है कि पुलिस ऐसे लोगों की गतिविधियों पर लगातार नजर रखे और यदि कोई दुबारा अपराध की ओर अग्रसर हो तो उसके खिलाफ दंडात्मक रवैया अपनाया जाए। कुल मिलाकर जनकल्याणकारी सरकार का कर्तव्य अपराधियों को मिटाना नहीं, बल्कि अपराध को मिटाना ही होना चाहिए। हां, संगठित अपराधों के प्रति सरकार को किसी तरह की नरमी नहीं बरतनी चाहिए।
कितने कमरे!
6 months ago
1 comment:
vishay vicharniy hai.... aapne iske kai pahluon ka sateek vishleshan kiya....
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