बिहार विधानसभा के लिए छह चरणों में करीब डेढ़ माह तक चली चुनाव प्रक्रिया की पूर्णाहुति बुधवार को हुई। बिहार के मतदाताओं ने एकमत से जद (यू)-भाजपा गठबंधन के पिछले पांच साल के दौरान किए गए कामकाज पर मुहर लगा दी और यह मुहर भी ऐसी कि प्रतिपक्ष का सारा गणित ही गड़बड़ा गया। चुनाव प्रचार के दौरान सोनिया-राहुल-मनमोहन समेत कांग्रेस के दिग्गजों के आरोपों और केंद्र सरकार की ओर से दी गई सहायता को सूबे के विकास में नहीं लगाने तथा अन्य आरोपों का नीतीश ने जिस शालीनता के साथ जवाब दिया, जनता शायद उससे रीझ सी गई। यही नहीं, लालू यादव-रामविलास पासवान भी अपनी आक्रामक शैली में राजग गठबंधन पर अनर्गल प्रलाप से कतई बाज नहीं आ रहे थे, लेकिन नीतीश कुमार ने न तो कभी अपना आपा खोया और न ही सलीका छोड़ा।
देश के राजनीतिक गलियारे में जैसा कि प्रचलित है, जिस धरती पर लोकतंत्र ने पहली सांसें लीं, जातिवाद का जहर भी सबसे अधिक उसी को भुगतना पड़ा, लेकिन इस चुनाव में बिहार ने इस कलंक को काफी हद तक धो डाला। तथाकथित कई बाहुबलियों और दिग्गजों की ऐसी भद्द पिटी कि इससे उबरने में उन्हें बरसों लग जाएंगे। लालू प्रणीत राजद के पंद्रह साल के शासन के दौरान बिहार की जनता ने प्रदेश की जो दुर्गति देखी थी, वे जद (यू)-भाजपा गठबंधन सरकार के पांच साल के कार्यकाल में हुए विकास कार्यों से सहज ही अभिभूत थे।
उन्हें लग रहा था कि विकास के इस पहिये को यदि गतिमान रखना है तो इस गठबंधन को एक और अवसर देना ही होगा। सुशासन के रथ को अग्रसर करने के लिए सारथि को बदलना कदापि बुद्धिमानी नहीं होती, जिसे बिहार के मतदाताओं ने अच्छी तरह समझा। लालू के राज में बिहारवासियों की पहचान ऐसी बन गई थी जो लालू रूपी जमूरे से परेशान होने के बावजूद चुनाव आने पर उसके इशारों पर करतब दिखाने (वोट देकर उसे दुबारा सत्तासीन करने) की मूर्खता करने को विवश था। इस चुनाव परिणाम ने उस पहचान से भी बिहारवासियों को मुक्ति दिलाई है। हां, चुनावी सभाओं के दौरान जनता ने लालू के मसखरेपन का भरपूर मजा लिया, जिससे लालू-रामविलास का मुगालता बना रहा, लेकिन बेहद चतुराई से जनता ने इसे वोट में परिणत नहीं होने दिया।
कांग्रेस का हश्र तो यही होना था
देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक चार दशक से अधिक समय तक कांग्रेस का एकछत्र राज रहा था और इसी अवधि में धीरे-धीरे बिहार पतन की ओर अग्रसर होता चला गया। श्रीकृष्ण सिंह के अलावा एक भी मुख्यमंत्री नहीं हुआ, जिसे बिहार में विकास कार्यों के लिए याद किया जाए। बिहार की जनता कांग्रेस को गांधी बाबा की पार्टी समझकर वोट देती रही और कांग्रेस ने इसे अपनी जागीर समझ लिया और सत्ता-लिप्ता में डूबे उसके आकाओं ने जनता को ही भुला दिया। लंबे समय तक किसी को बेवकूफ बनाना सर्वथा असंभव है, सो बिहार की वर्तमान पीढ़ी ने इस सत्य को समझ लिया कि कांग्रेस तो कब की गांधी को ही भूलकर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है तो फिर इसे परे झटकना ही श्रेयस्कर है।
विकास पुरुष बने रहेंगे आदर्श
नई पीढ़ी के मतदाता अपना हित-अहित अच्छी तरह समझते हैं। इन्हें मंडल-कमंडल, जाति-संप्रदाय के भुलावों से नहीं बहलाया जा सकता। जो अच्छे काम करेगा, वही राज करेगा। इसका प्रमाण सबसे पहले नरेंद्र मोदी ने दिया जो नॉन बीजेपी सभी दलों के सामूहिक प्रयासों के बावजूद तीन विधानसभा चुनावों से अपना परचम लहराए हुए हैं। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में रमण सिंह, उड़ीसा में नवीन पटनायक आदि को विकास कार्यों की बदौलत ही जनता ने पंचवर्षीय परीक्षा में सौ में से सौ अंक दिए। जनता को चाहिए काम, काम और बस काम....और ऐसा नहीं करने वालों का मिट जाएगा नाम।
जनता को लगी अपनी जीत
चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में नीतीश कुमार ने इसे जनता की जीत बताया और जनता ने भी इसे अपनी जीत समझा। बिहार से बाहर रह रहे बिहार के लोग चुनाव परिणाम देखने के लिए सुबह से ही टेलीविजन के सामने बैठ गए थे और हर कोई बिहार स्थित अपने सगे-संबंधियों और मित्रों से फोन कर अपने गृह जिले के परिणाम को जानने को उत्सुक था। दोपहर बाद जब जद (यू)-भाजपा गठबंधन को आशातीत सफलता की पुष्टि हो गई तो एक-दूसरे को बधाई देने का सिलसिला शुरू हो गया। हर किसी को यही लग रहा था जैसे वह खुद जीत गया हो।
2 comments:
ठीक समीक्षा की है आपने .
सुशासन का कोई विकल्प नहीं है ...जात धर्म की राजनीति अब नहीं चलेगी ...बिहार की जनता ने दिखा दिया है !
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