Saturday, October 16, 2010

ऐसे तो नहीं मरेगा रावण?


पश्चिम बंगाल के पड़ोस होने का प्रभाव कहा जाए कि बिहार में भी शक्ति की उपासना बड़े पैमाने पर होती है और हर पांच-छह किलोमीटर पर दुर्गा पूजा होती है, मेला भरता है। शारदीय नवरात्र के दौरान उत्सव का माहौल रहता है। इसे एक संयोग ही कहा जाएगा कि मेरे जन्म के साल ही गांव में नवयुवक संघ के बैनर तले दुर्गा पूजा और मेला शुरू हुआ। पांचवीं-छठी क्लास तक आते-आते मेरे जैसे बच्चों की भागीदारी भी मेले में होने लगी। चूंकि गांव में इतने पैसे नहीं होते, सो ग्रामीण नवयुवक ही मेले में लोगों के मनोरंजन के लिए सप्तमी से लेकर दशमी तक नाटकों का मंचन करते थे, सो मुझे भी इनमें अवसर मिला और मेरे अंदर का कलाकार निखरता रहा। बाद में नई दिल्ली में अखिल भारतीय स्तर पर संस्कृत नाटक प्रतियोगिता में भी हिस्सा लेने का अवसर मिला। खैर, मैं यहां अपनी नाट्य प्रतिभा का बखान नहीं करना चाहता, वह तो यूं ही बात निकली तो काफी पीछे तक चली गई।
जैसा मैंने शुरू में कहा कि बंगाल-बिहार-झारखंड-उत्तर प्रदेश में शक्ति स्वरूपा मां भगवती की आराधना की ही प्रधानता रहती है। जिधर से आप गुजरेंगे, नवरात्र के दौरान लाउडस्पीकर पर दुर्गा सप्तशती के श्लोक बरबस ही सुनाई देते हैं। वहां रावण के पुतले की दहन की परंपरा बहुत कम ही है। पहली बार जब मैं उपरोक्त नाट्य प्रतियोगिता के सिलसिले में विजयादशमी के दिन दिल्ली गया था तो लालकिले के सामने लाल जैन मंदिर की धर्मशाला में ठहरा था। पूरे देश के हमारे सहपाठी उसी में ठहरे थे। शाम को छत से देखा कि सामने काफी बड़ी भीड़ इकट्ठी है। रंग-बिरंगी आतिशबाजी के बीच शाम को रावण के पुतले का दहन हुआ। उसके डेढ़-दो साल बाद जयपुर आ गया। यहां भी नवरात्र के दौरान मां भगवती की आराधना में कहीं कोई कमी नहीं दिखती, लेकिन रावण के पुतले जलाने का उत्साह भगवती की भक्ति पर भारी पड़ती नजर आती है। हां, प्रवासी बंगालियों के समुदाय शहर में आधा दर्जन से अधिक स्थानों पर परंपरागत रूप से मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित करते हैं और सप्तमी से लेकर विजयादशमी तक अपनी संस्कृति को जीते हैं, लेकिन इन उत्सवों में स्थानीय निवासियों की भागीदारी न के बराबर होती है। हां, गुलाबी नगर में सैकड़ों स्थानों पर सार्वजनिक रूप से बड़े पैमाने पर रावण-मेघनाद-कुंभकर्ण-अहिरावण के पुतले जलाए जाते हैं। एक तरह की होड़ होती है आयोजकों में कि किसका रावण कितना ऊंचा होगा और कौन कितनी आतिशबाजी-बारूद फूंकता है। इतना ही नहीं, कॉलोनी से लेकर गली तक में बच्चे अपने स्तर पर रावण को जलाने में पीछे नहीं रहते।
अब मैं उस मूल मुद्दे पर आता हूं जिसके लिए मैंने आज यह संवाद छेड़ा है। भगवान राम ने त्रेता युग में रावण का संहार किया था और तब से हजारों साल बीत गए, हम रावण के पुतले जलाते जा रहे हैं, लेकिन वह हर साल और बड़े रूप में चिढ़ाता हुआ हमारे सामने आ खड़ा होता है। यह आलस्य, अविश्वास, कामचोरी, भ्रष्टाचार और न जाने हमारी किन-किन कमजोरियों के रूप में दस से भी अधिक सिरों के साथ हमारे अंदर कायम हो चुका है। हम यदि अपने अंदर निहित बुराई रूपी रावण को मार सकें तभी विजयादशमी मनाना सार्थक हो सकेगा। यदि हम खुद को पाक साफ मानते हैं तो बुराई करने वालों का ही सफाया कर दें ताकि उसे और पनपने का मौका नहीं मिले। रावण को समूल मिटाने का बस यही दो तरीका मेरी समझ में आता है, अन्यथा लकीर पीटने में हमारा सानी और कहां मिल पाएगा। विजयादशमी की ढेर सारी मंगलकामनाएं।

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