Thursday, February 18, 2010

बिहार - समय के साथ बदल रहा है स्वाद

बीतते हुए समय के साथ बिहार में बहुत कुछ बदलता जा रहा है। वंशवृद्धि के कारण हुए बंटवारे से खेत भले ही सिकुड़ती जा रही हो, उपज काफी बढ़ गई है। पिताजी ने बताया कि पहले जब लोगों के पास काफी खेत थे तो बहुत बड़ी आबादी मड़ुवा, जनेरा, सामा-कोदो खाने को विवश थी। जो यह सब भी नहीं खरीद पाते थे, उनके लिए गूलर और बरगद के फल भी प्रकृति के वरदान से कम नहीं हुआ करते थे। शकरकन्द, खेसारी और मड़ुवा की स्थिति ऐसी थी कि कई गांवों की पहचान ही इसी से होती थी। मसलन जिस गांव में मड़ुवा की खेती अधिक होती थी, वहां के अधिकतर लोग घेंघा रोग से पीçड़त होते थे। इसी तरह खेसारी की उपज अधिक मात्रा में होती थी, वहां के लोगों में जोड़ों में ददॅ की समस्या आम थी। ऐसे गांवों के लोगों के पैर अमूमन टेढ़े हो जाया करते थे, जिस कारण चलने में उन्हें असह्य पीड़ा होती थी। नई पीढ़ी को तो इन अभिशापों से मुक्ति मिल चुकी है, लेकिन पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी इस पीड़ा का दंश झेलते देखे जा सकते हैं। आज की तारीख में कोई भी मोटा अनाज खाना पसन्द नहीं करता और करे भी तो ये मोटे अनाज बड़ी मुश्किल से मिलते हैं क्योंकि किसानों ने घाटे का सौदा समझकर इन्हें उपजाना ही बन्द कर दिया है। पहले मजबूरी में सत्तू खाते थे और-अभावे शालिचूर्णम्-कहावत आम थी, लेकिन आज सत्तू रंगीन पॉलिथिन में गैस्टि्रक की औषधि के रूप में 200-250 ग्राम पैकिंग में बिकता है। इसी तरह गरीबी का सहारा भुना हुआ मक्का पॉप कॉर्न बनकर इतरा रहा है।

चना आउट, राजमा इन


दो-ढाई दशक पहले गांव छूटने के कारण वहां से जुड़ी कई चीजें भी छूट गईं। कई स्वाद अविस्मरणीय हैं, लेकिन जबान को उन्हें चखने का अवसर ही नहीं मिल पाता। इस बार जनवरी में गया तो चने का साग खाने की इच्छा बरबस ही बलवती हो उठी। छोटे भाई को पूछा तो पता चला कि अब अपने खेतों में तो क्या, पूरे गांव में ही कहीं चने की खेती नहीं होती। इस तरह मन की बात मन में ही रह गई। भला हो भतीजे का जो पटना में रहकर प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी कर रहा है। उसे फोन कर दिया था तो वह ट्रेन में बिठाने आया तो चने का साग खरीदकर ले आया, जो बिहार से जयपुर के लिए महत्वपूर्ण सौगात था हमारे लिए।
हां, इस बार गांव में कई स्थानों पर एक नई फसल देखी। पूछने पर पता चला कि यह राजमा है। कभी अरहर की दाल किसी घर में बनती थी तो उसकी सोंधी महक पूरे मोहल्ले में फैल जाती थी, अब राजमे की खुशबू का विस्तार इस तरह होता है या नहीं, यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह तो पक्का है कि अरहर की जगह लोगों की जीभ को राजमा का स्वाद भी भा गया है।

2 comments:

श्यामल सुमन said...

एक जमीनी चर्चा आपने की है इस पोस्ट के माध्यम से। सचमुच बचपन की कुच चीजें बस यादें बनकर रह गयीं हैं।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

Rajani Ranjan said...

Bihar is of course changing but poverty is still persisting in its cruel form. Crores of Government employees fight for release of Dearness Allowance every six months and the Government does not disappoint them but what about the farmers, labourers whose families are dependent on very very small plots giving crops sufficient only for a month or two or on their buffaloes/cows giving only a few litres a day and the rates of milk does not increase for years and years in the villages. Major population of India(including Bihar)does not get food twice a day.Who will think about D.A to to those downtroddens?