तत्कालीन प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर की सरकार से कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद जब विश्वासमत पर लोकसभा में बहस हो रही थी, तो चन्द्रशेखर ने बड़े ही उदास स्वर में कहा था-
गैर मुमकिन है कि हालात की गुत्थी सुलझे,
अहले दानिश ने बड़ा सोच के उलझाया है। आज सहसा ही चंद्रशेखर द्वारा उद्धृत ये पंक्तियां याद आ गईं। वर्तमान दौर में केन्द्र में यूपीए की गठबंधन सरकार सत्तासीन है और देश का मध्यमवरगीय परिवार दिनोंदिन महंगाई की चक्की में पिसता हुआ उपरोक्त पंक्तियों को ही दुहराता रहता है। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह पहला कार्यकाल कुशलतापूर्वक पूरा कर दूसरी पारी खेल रहे हैं। यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी के प्रति उनकी निष्ठा में कहीं कोई कोताही नहीं दिखती, सो उनकी कुरसी को तो कोई खतरा नहीं दिखता, लेकिन वर्तमान दौर में आमजन का पेट भरना मुश्किल हो गया है। सरकार न जाने क्या कर रही है? रही-सही कसर वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी ने आम बजट में पूरी कर दी। पेट्रोल-डीजल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी के कारण प्रत्यक्ष रूप में वाहनों से प्रति सौ रुपए मिलने वाला एवरेज तो कम हो ही गया है, वहीं इसका परोक्ष प्रभाव भी आने वाले दिनों में वस्तुओं के परिवहन की लागत बढ़ने से सामने आएगा।
यह सब तो अर्थशास्त्रियों के चिन्तन का विषय है, लेकिन आम आदमी की चिन्ता को भी कैसे नकार दिया जाए। मैं भी अपनी पीड़ा को दबा नहीं पाता हूं और लिखना कुछ चाहता हूं, लिखने कुछ और ही लगता हूं।
खैर, अब आज की उस खबर पर आता हूं, जिसने मुझे इन पंक्तियों को लिखने के लिए झकझोरा। राजस्थान के सर्वाधिक प्रसारित-प्रतिष्ठित अखबार राजस्थान पत्रिका में शुक्रवार को अन्तिम पृष्ठ पर ---गर्भनिरोधक गोलियों के विज्ञापन पर रोक---शीर्षक खबर ने सहसा ही ध्यान खींचा। खबर में यौन संपर्क के 72 घंटे में गोली लेने पर गर्भ नहीं ठहरने का दावा करने वाले विज्ञापन पर रोक की बात कही गई थी। इस गोली का नाम शायद ---अनवांटेड 72---है। अपने देश में बहुसंख्यक बीपीएल परिवारों के मनोरंजन का सहारा दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर इसके इतने विज्ञापन आते थे कि पूछो मत। खबर में खुलासा था कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्रालय की बजाय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर केन्द्र सरकार के औषधि नियन्त्रक ने वर्ष 2007 में इमरजेंसी गर्भनिरोधक गोलियों के विज्ञापन दिखाए जाने की छूट दी थी। इसमें उक्त गोलियां बनाने वाली कंपनी के अलावा तथाकथित औषधि नियन्त्रक का हित कितना सधा, यह तो जांच का विषय है। 2007 से अब तक सोचें तो लगभग 36 महीने बाद आखिरकार मनमोहनी सरकार चेत पाई। हालांकि यह इकलौता मामला नहीं है। कई अन्य दवाओं के विज्ञापन भी टेलीविजन पर बेधड़क दिखाए जा रहे हैं और सैकड़ों लोग उनके साइड इफेक्ट से जूझने को विवश हैं। आशा है सरकार इन मामलों पर भी ध्यान देगी और लोगों को उनके घर के पास सस्ती और अच्छी क्वालिटी वाली स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराएगी, जिससे आमजन विज्ञापनों की बजाय सरकारी अस्पतालों और डॉक्टरों पर यकीन करके इलाज कराने के लिए कदम बढ़ा सकें।
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