Friday, October 22, 2010

पूजा नहीं, पढ़ने के लिए हैं संस्कृत ग्रंथ


महर्षि वाल्मीकि जयंती पर शुक्रवार को जयपुर के सूचना केंद्र में पूर्व आईपीएस अधिकारी और बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष आचार्य किशोर कुणाल का व्याखान सुनने का सुअवसर राजस्थान संस्कृत अकादमी ने उपलब्ध कराया। कुणाल ने वाल्मीकि रामाय का सामाजिक महत्व पर अपने उद्बोधन में रामायण का जो नवनीत श्रोताओं के समक्ष रखा, वह इतना उत्कृष्ट था कि श्रोता उसमें निमग्न से होते रहे। किशोर वय से कुणाल के विषय में सुना था, उनकी ईमानदारी, संस्कृत प्रेम, मानव सेवा आदि के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। उनके अध्यात्म प्रेम का प्रमाण तो पटना जंक्शन पर उतरते ही होता है, जब महावीर मंदिर का गुंबद आपको नजर आता है। इस मंदिर में सब कुछ इतना व्यवस्थित है कि मन प्रफुल्लित और गौरवान्वित हो उठता है। महावीर मंदिर न्यास की ओर से पटना में ही संचालित महावीर कैंसर अस्पताल (हनुमानजी का एक नाम महावीर भी है) भी बिहार के कैंसर रोगियों के लिए वरदान सरीखा है। खैर, किशोर कुणाल के विषय में कुछ भी कहना सूरज को दीपक दिखाने के समान है, लेकिन भारतीय परंपरा इसकी भी अनुमति देती है।
कुणाल का कहना था कि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में राम का जो चरित्र उपस्थापित किया है, वह अतुलनीय है। महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास ने क्रमशः रामायण और महाभारत के माध्यम से मानवता को जो सीख दी है, उस पर यदि अमल किया जाता तो यह धरती स्वर्ग हो जाती। रामायण में राम और भरत के माध्यम से बताया गया कि संबंध निर्वाह में स्वार्थपरता का कोई स्थान नहीं है और ऐसे में सर्वत्र मंगल ही मंगल होता है, त्याग की भावना के आधार पर ही सुदृढ़ समाज की रचना संभव है, जबकि महाभारत में दुर्योधन ने स्वार्थान्धता के कारण सूई की नोक के बराबर जमीन भी पांडवों को न देने की घोषणा करके जिस दुस्साहस का परिचय दिया, उसकी परिणति संपूर्ण भारत के महाविनाश से हुई। वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य से रचनात्मकता का संदेश दिया, जबकि व्यास ने चेतावनी दी कि स्वार्थ के वशीभूत रहोगे तो विनाश अवश्यंभावी है। आचार्य कुणाल के व्याख्यान में जो कुछ था, उसका अवगाहन ही किया जा सकता है, उसे शब्दों में बांधने का सामर्थ्य मुझमें कतई नहीं है। सीता निर्वासन प्रसंग की चर्चा के दौरान कुणाल इतने भावुक हो उठे कि उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली और गला रूंध सा गया।
इससे पहले राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर नंदकिशोर पाण्डेय ने रामायण में वर्णित राम-भरत मिलन के सूत्र को पकड़कर तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की अद्भुत व्याख्या की। चित्रकूट में राम-भरत संवाद के दौरान वर्णित श्लोकों की व्याख्या उन्होंने वर्तमान संदर्भ से जोड़ते हुए बखूबी किया। हिन्दी के साथ संस्कृत भाषा पर भी उनका अधिकार सुनते ही बनता था। उन्होंने कहा कि इसमें दो राय नहीं है कि तुलसीदास ने रामकथा को जन-जन तक पहुंचाया, लेकिन रामकथा तुलसी के प्रादुर्भाव से हजारों वर्ष पहले भी भारत ही नहीं, बल्कि भारत से बाहर भी प्रचलित थी। उन्होंने इसके पक्ष में कई प्रमाण भी दिए।
अध्यक्षीय उद्बोधन में संस्कृत मनीषी देवर्षि कलानाथ शास्त्री का कहना था कि कथा-प्रवचन सरीखे सार्वजनिक कार्यक्रमों में ऐसे विद्वानों के व्याख्यान होने चाहिए, ताकि आमजन संस्कृत और भारतीय संस्कृति में छिप गूढ़ तत्वों से अवगत होकर इसे आचरण में ला सके।
मैं समझता हूं कि भारतीय संस्कृत ग्रंथों में ज्ञान का जो खजाना भरा पड़ा है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। श्रीमद्भगवद्गीता और रामचरितमानस अमूमन प्रत्येक हिन्दू घर में अवश्य होता है, लेकिन अफसोस इसे लाल कपड़े में बांधकर पूजाघर में रख दिया गया है। परिवार के लोग प्रतिदिन स्नान के बाद इन ग्रंथों में अगरबत्ती दिखाना नहीं भूलते। अब जरूरत है कि इन ग्रंथों को पूजाघर से निकालकर ड्राइंग रूम और घर की पुस्तकालय में प्रतिष्ठित किया जाए और नियमित रूप से इनका स्वाध्याय किया जाए और इससे जीवन प्रबंधन और सफलता का नवनीत निकालकर उससे जीवन को धन्य किया जाए। माता-पिता खुद भी संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन करें औऱ अपनी संतान को भी इसके लिए प्रेरित करें।

1 comment:

कोसलेंद्रदास said...

vastav me sanskrit puja or pathan dono ke liyehai maharaj.