Sunday, November 11, 2007

पूछो न कैसे दिन-रैन बिताई (दो)

दीपावली का त्यौहार मनाने का हर राज्य, जिला और कहें तो गांव तक का अपना-अपना विशिष्ट तरीका होता है। फिर बच्चों का क्या, वे तो इन तरीकों के जन्मदाता होते हैं, वे जो न कर बैठें, वह कम ही होगा। जब काफी छोटा था, (जहां तक याद कर पाता हूं) तो मां के साथ दीये जलाने का अलग ही आनंद होता था। कुछ बड़ा हुआ तो दीपावली की अगली सुबह सभी भाई-बहनों में होड़ होती थी कि कौन जल्दी जगेगा। कई बार तो हम इस चक्कर में सो भी नहीं पाते थे। पौ फटने से पहले ही हम बिस्तर छोड़ देते थे और मिट्टी के जले हुए दीये (जिन्हें हम गांव की भाषा में दीवौरी कहते थे)चुन-चुनकर इकट्ठा करते थे। दिन होते ही हमारी दुकान सज जाती थी। छोटे-छोटे हाथ पटसन की पतली रस्सी बांटते, पटसन की ही डंठल(संठी) से तराजू की डंडी और बड़े दीयों से तराजू के पलड़े बनाते थे। छोटी दीवौरियां मापने के काम आती थी। तौलना भी तो मिट्टी ही होता था और बेचना-खरीदना भी वही।
समझ बढ़ी तो खेल बदला, नाटक के प्रति रुझान बढ़ा। हम साथियों सहित दसेक दिन तक हिंदी की किताब में आए नाटक की रिहसॅल करते और फिर दीपावली की रात को बैडशीट व चादरों का परदा तानकर नाटक खेलते। गांव के हम भोले बच्चों की प्रस्तुतियों का इंतजार ग्रामीणों को बेसब्री से रहता था। उनकी तालियां और महज एक-दो रुपए के इनाम हमारे लिए किसी ऑस्कर से कम नहीं होते थे। जब हमने अपने टोले में चंदा कर नाटक के लिए पहली बार माइक किया था तो हमें जो खुशी हुई थी, वह राकेश शर्मा को चांद पर जाने के बाद भी नहीं हुई होगी। नाटक का शौक आगे भी बना रहा, लेकिन अब बीतते हुए समय ने मुझे कलाकार से कलाकारों का कद्रदान बना दिया है। पिछले 12-14 साल से किसी न किसी कारणवश दीपावली पर घर न जा पाने के कारण मन में जो मलाल रहता है, उसे किससे शेयर किया जाए,कुछ समझ नहीं पाता था, कई बार डायरी पर उतारने की कोशिश की तो आंखों के पानी से कागज भीग गया, लिखा नहीं जा सका। बीबी-बच्चे जिनके बचपन का परिवेश मुझसे सवॅथा ही भिन्न रहा है, वे मेरी टीस को क्या महसूस कर सकेंगे, सो उन्हें भी हमराज नहीं बना सका। इस बार ब्लॉग ने यह मंच उपलब्ध कराया तो सोचा कि इसे आपलोगों से ही शेयर करूं।
सॉरी, त्यौहार के इस उल्लास भरे मौसम में आपबीती ले बैठा, ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप सभी ऐसे हषॅ के क्षणों में उनके साथ हों, जिनके साथ रहने को आपका दिल करता है। धन्यवाद मेरी व्यथा को आपने आत्मसात किया।

1 comment:

Ashish Maharishi said...

purane din yaad dilya diya mangalm ji aapne