Sunday, November 11, 2007

पूछो न कैसे दिन-रैन बिताई (एक)

दीपावली पर शुक्रवार को सुबह से ही घर में उत्सवी माहौल था। परिवार भले छोटा हो, किराये का घर उससे भी छोटा, लेकिन खुशियां बड़ी लग रही थीं। श्रीमतीजी किचन में भांति-भांति के व्यंजन बना रही थीं। बच्चे की फरमाइश पूरी करते हुए देर रात ही फुलझड़ियां, अनार, जमीन चक्कर और न जाने क्या-क्या ले आया था, सो वह भी शाम की प्लानिंग में मस्त था। मैं चूंकि सुबह तीन बजे लौटा था, सो कभी सोने का बहाना करके तो कभी रेडियो पर समाचार सुनने के बहाने आंखें मूंदे लेटा रहा। पत्नी ने झकझोरा तो दोपहर को बाजार गया और पूजा के लिए फल-फूल, मिठाई और दूसरे सामान लाकर दुबारा लेट गया। शाम हुई तो श्रीमतीजी ने सज-धजकर घर से लेकर मंदिर तक दीपक जलाए तथा आधुनिका नारी होने के नाते बच्चे को आतिशबाजी में भी साथ दिया। पूजा के समय मैं नहा-धोकर तैयार हुआ और दशॅक की भांति श्रद्धाभाव से बेटे के साथ बैठ गया। मेरा मानना है कि गृहलक्षमी ही महालक्षमी का मनुहार करे तो वे आ सकती हैं, और फिर त्रियाहठ के वशीभूत होकर टिक भी सकती हैं, चंचला जो ठहरीं। आधुनिक तकनीक ने हमें बहुत ही आजादी दे दी है। कभी लंदन-अमेरिका में पंडितों की कमी के कारण टेप चलाकर सत्यनारायण भगवान की कथा की बात किसी मैग्जीन में पढ़ी थी। मैंने भी डीवीडी प्लेयर पर महालक्षमी पूजन का एमपीथ्री चला दिया (पिछले साल पंडितजी की प्रतीक्षा में १२ ही नहीं, १-२ तक बज गए थे) और श्रीमतीजी उसी का अनुसरण करती हुई पूजा करती रहीं। आरती के दौरान स्पीकर से जब हम तीनों के समवेत स्वर मिले तो वातावरण वाकई भक्तिपूणॅ हो गया था। महालक्षमी की रखवाली का दायित्व घरवाली को सौंपकर गुरुजनों का आशीष लेने मैं निकल गया। माता-पिता से दूर रहने की एक कसक यह भी होती है ऐसे सुअवसरों पर उन सुपात्रों की तलाश करनी पड़ती है, जिनके चरण श्रद्धाभाव से छू सकूं, औपचारिकता पूरी करने भर के लिए नहीं। देर रात घर लौटा और फिर उन्हीं यादों में खो गया, जिन्होंने दिनभर मेरे अवचेतन मन को मथकर रख दिया था।
आगे की बातें फिर करेंगे....

1 comment:

Asha Joglekar said...

सहज़ सुंदर वर्णन । आप लेटले बहुत हैं । भाभीजी का हाथ बटा देते ।