Monday, October 10, 2011

सनातन धर्म की गौरवशाली परंपराएं



'पितृ देवो भवÓ की संस्कृति वाले देश में पूर्वजों के तर्पण और शक्तिस्वरूपा मां भगवती की आराधना के बाद आती है देवोत्थान एकादशी


अभी हाल ही संपन्न हुए शारदीय नवरात्र के दौरान जब हिंदू परिवारों में घर-घर शक्तिस्वरूपा मां भगवती की साधना-आराधना का दौर चल रहा था, मंदिरों में घंटा-घडिय़ाल से लेकर दुर्गा सप्तशती के श्लोकों की गूंज सुनाई दे रही थी, ऐसे में सनातन धर्म की गौरवशाली परंपराओं का सहज ही स्मरण हो आया। 'पितृ देवो भवÓ का उद्घोष करने वाले सनातन धर्म ने इसे महज वक्तव्यों और शास्त्रों तक में ही सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे आचरण में भी अपनाया। इसी का परिणाम है कि सनातन परंपरा में हमें जीवन देने वाले पूर्वजों-पितरों का स्थान देवताओं से भी ऊपर माना गया है। हिंदी पंचांग में पितृपक्ष के बाद देवोत्थान एकादशी का आना भी इसका ही सूचक है। पितरों के प्रति श्रद्धा के समर्पण को ध्यान में रखते हुए भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन माह की अमावस्या तक को पितृपक्ष या कनागत के रूप में वर्णित किया गया। इस दौरान पूर्वजों-पितरों की मृत्यु तिथि के हिसाब से उनके श्राद्ध-तर्पण-पिंडदान का विधान किया गया है। किसी भी महत्वपूर्ण तिथि को भूल जाने की मनुष्य की सहज प्रवृत्ति का भी सनातन धर्म के पुरोधाओं ने ध्यान रखा, जिसे उनकी दूरंदेशी का सूचक माना जा सकता है। किसी कारणवश यदि अपने पितरों की मृत्यु तिथि याद नहीं रख पाएं तो उनके श्राद्ध-तर्पण के लिए आश्विन अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या का विधान रखा गया है। इस दिन लोग अपने घर पर तो पितरों का तर्पण-श्राद्ध करते ही हैं, कई स्थानों पर सामूहिक श्राद्ध-तर्पण की व्यवस्था की जाती है ताकि साधनविहीन आदमी भी पितृ ऋण से मुक्ति पा सके।
सनातन धर्म की उदात्त सोच के विस्तार का ही परिणाम है कि भारत में पुरुष प्रधान समाज होने के बावजूद शक्ति की आराधना को वरीयता दी गई है। पितृपक्ष-कनागत की समाप्ति के तुरंत बाद आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को नारी शक्ति की प्रतीक के रूप में मां भगवती की पूजा-अर्चना का दौर शुरू हो जाता है। शारदीय नवरात्र के दौरान नौ दिनों तक शक्तिस्वरूपा मां दुर्गा के विविध रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। राजस्थान में जहां घर-घर घट स्थापना कर मां दुर्गा की आराधना की जाती है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में सामूहिक स्तर पर उत्सव के रूप में यह त्यौहार मनाया जाता है। लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर पांडाल बनाए जाते हैं और सांस्कृतिक-धार्मिक आयोजन होते हैं। इसके बावजूद मां दुर्गा, महिषासुर, लक्ष्मी-सरस्वती तथा कार्तिकेय-गणपति की मिट्टी की ही प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। दुर्गा पूजा की पूर्णाहुति कन्याओं के पूजन और जीमन से होती है। आज जब समाज से कन्या भ्रूणहत्या का कलंक मिटाने के लिए सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर किए जा रहे प्रयास भी नाकामी साबित हो रहे हैं, ऐसे में इस बात पर हमें गर्व करना चाहिए कि सनातन धर्म के कर्ता-धर्ताओं ने इस स्थिति को सदियों पहले भांप लिया था और कन्या-पूजन के रूप में नारी के महत्व को प्रतिपादित कर दिया था। शारदीय नवरात्र के दौरान नौ दिनों तक रोज विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हुए इन प्रतिमाओं के प्रति लोगों की श्रद्धा और प्रीति सहज ही बढ़ जाती है, इसके बावजूद मानव जीवन को क्षणभंगुर मानने वाला सनातन दर्शन देवी-देवताओं को भला कहां स्थायी मानने की भूल करता। ऐसे में विजयादशमी पर इन प्रतिमाओं को शोभायात्रा के रूप में ले जाकर जलाशयों-नदियों में विसर्जन कर दिया जाता है। प्रकाश के साधनों के आविष्कार के बाद मनुष्य ने अंधकार पर विजय पाई, लेकिन धरती से अंधकार को दूर भगाने का उदाहरण केवल सनातन परंपरा में ही मिलता है, जब कार्तिक कृष्ण अमावस्या पर दीपों की जगमगाहट अंधकार के साम्राज्य को पूरी तरह मात दे देती है। अंधकार पर प्रकाश के विजय के इस पर्व के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान एकादशी के रूप में मनाया जाता है और सनातन परंपरा स्वयं को देवताओं की पूजा-अर्चना में संलग्न कर देव ऋण से मुक्त होने का प्रयास करती है।

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