जब से सृष्टि की शुरुआत हुई है, तभी से शाश्वत सत्य की तरह प्रवृत्ति और निवृत्ति की परंपरा भी शुरू हो गई। सद्ग्रंथों से लेकर महापुरुषों तक ने समय-समय पर विभिन्न प्रसंगों में इसकी व्याख्या की, लेकिन यहां मेरा उद्देश्य उन उपदेशों की पुनरावृत्ति करना नहीं है। मैं तो सामान्य से मानव प्रवृत्ति की बात कर रहा हूं। पेट भरने की समस्या जितनी ज्वलंत है, शारीरिक प्रक्रिया उसी हिसाब से इसे खाली करने में यदि सक्षम नहीं हो तो आदमी को कई सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आज यदि हमारे देश में लाखों लोग पेट नहीं भर पाने की समस्या से ग्रसित हैं तो हजारों लोग ऐसे भी हैं जो समय से पेट खाली नहीं होने के कारण वैद्यों-डॉक्टरों की शरण में जाकर भांति-भांति की चूरण-चटनी-पाचक का सेवन करने को बाध्य हैं। मन मुताबिक भोजन मिलने से जितनी संतुष्टि होती है, सुबह-सुबह बिना किसी रुकावट फारिग होने से होने वाला सुख भी उससे कम नहीं होता।
तो बात फिर वहीं आती है कि सृष्टि की शुरुआत से ही पेट भरने के साथ ही निबटना भी मूलभूत आवश्यकताओं में से एक रही है। भारत गांवों का देश है, तो जाहिर सी बात है कि सभी गांवों में दशकों पहले शौचालय नहीं थे, आज भी हजारों गांवों में शौचालय नहीं हैं। शौचालय की सुविधा हो न हो, निबटना तो पड़ेगा ही, सो आदमी ने अपनी सुविधा के हिसाब से विकल्प चुनने शुरू किए होंगे। खेतों से लेकर जंगल तक को उसने निबटने का आश्रय स्थल बनाया। सभ्यता के विकास के साथ पगडंडियां जब कच्ची सड़कों में तब्दील हुई होंगी तो उसके किनारे भी विकल्प के रूप में मनुष्य के सामने आए और उसने इसे बखूबी अपनाया और आज पक्की सड़कों, जीटी रोड, चमचमाती फोर लेन सड़कों के किनारे भी सुबह-शाम निबटने वालों की परेड आसानी से दृष्टिगोचर हो जाते हैं।
अंग्रेजों ने सोने की चिडिय़ा समझकर भारत को भले ही खूब लूटा, लेकिन कई मायनों में उन्होंने विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया। इसी कड़ी में वर्ष 1853 में भारत में पहली रेलगाड़ी चली। रेलगाड़ी चलने से पहले पटरी बिछाई गई और देशवासियों ने ट्रेन का सफर शुरू करने से पहले पटरी के किनारे या पटरी पर बैठकर निबटने का अपना मौलिक कर्तव्य निभाया। बदलते हुए समय के साथ बाकी सब कुछ बदल गया हो, लेकिन यह परंपरा आज भी सुदूर गांव-देहात से लेकर बड़े-बड़े महानगरों तक बखूबी जारी है।
रेल की दोनों पटरी भले ही अलग-अलग चलती हों, लेकिन वे मुसाफिर को उसके गंतव्य तक पहुंचा देती हैं। इसी से साहित्यकारों-व्याकरणाचार्यों ने पटरी बिठाने की बात कही।
भारत में जब स्वतंत्रता संग्राम लड़ा जा रहा था, तब अंग्रेजों का राज था और सात समंदर पार बैठी ब्रिटिश शासन व्यवस्था की कमर तोडऩे के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने रेल की पटरियां उखाड़ीं। भले ही देश स्वतंत्र हो गया, लेकिन तथाकथित आंदोलनकारी आज भी रेल यातायात बाधित करने से ही अपने संघर्ष की शुरुआत करते हैं। हमारे शासकों में भी अब इतना दमखम नहीं बचा कि वे इन आंदोलनकारियों से निबटने की माकूल योजना बना सकें। गुर्जरों ने आरक्षण के लिए राजस्थान में कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व में रेल की पटरी पर पड़ाव डाला। कई चरणों में हुए इस आंदोलन में उन्हें कुछ उपलब्धि भी मिली और इसका प्रतिफल यह हुआ कि पटरी पर पड़ाव डालना आज रोल मॉडल हो गया है। गुर्जरों के बाद अब जाट समुदाय कई सप्ताह से पटरियों पर रास्ता रोककर बैठा है। सैकड़ों ट्रेनें रोज रद्द हो रही हैं, सैकड़ों को रूट डायवर्ट कर चलाया जा रहा है। इससे हजारों-लाखों यात्रियों को जो परेशानी हो रही है, वह तो है ही, रेलवे को भी प्रतिदिन करोड़ों का नुकसान हो रहा है, लेकिन जाट हैं कि एक ही रट लगाए बैठे हैं...आरक्षण के मसले पर पटरी पर ही निबटेंगे। देखते हैं देश के तथाकथित कर्ता-धर्ता कब तक शेष देशवासियों, विशेषकर रेलयात्रियों की राह कब तक सुगम कर पाते हैं। काश! किसी राजनीतिक दल में यह हिम्मत होती या सभी राजनीतिक दल मिलकर आरक्षण की इस अमरबेल को मिटाने का साहस दिखा पाते जो हमारे देश की प्रतिभा की जड़ों को खोखला कर रही है।
कितने कमरे!
6 months ago
No comments:
Post a Comment