अपने केन्द्रीय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने आज शुक्रवार को चित्त (दिल) खोलकर बजट भाषण पढ़ा। जैसी कि अथॅशास्त्र के विद्वानों, राजनीति के जानकारों के साथ आम लोगों को उम्मीद थी, वित्त मंत्री ने सबकी सुविधाओं का ख्याल रखा, हां, देश की सुविधा का ख्याल रखना भूल गए।
मैंने किसी लेख में किसी महान विचारक के विचार कभी पढ़े थे कि आप यदि बच्चे को मछली पकड़ना सिखा देते हो तो वह जिंदगी में कभी भूखा नहीं रहेगा, लेकिन यदि उसे मछली पकड़कर-पकाकर खिलाते हो, तो वह सदैव ही इस आस में रहेगा कि बिना मेहनत के ही फल की प्राप्ति हो जाए, इस तरह उसकी उद्यमशीलता हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी।
आज सुबह बजट भाषण में जब किसानों की कजॅमाफी की घोषणा की गई तो सहसा यह दृष्टांत स्मरण हो आया। न जाने हमारी सरकारें जीवट के धनी किसानों की उद्यमशीलता का हरण कर उन्हें काहिल बनाने में क्यों जुटी है। पूवॅ प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के राज में भी किसानों का कजॅ माफ किया गया था, लेकिन उस कड़वे तथ्य को कैसे झुठला दूं जिसे बचपन में किताबों में पढ़ा था कि भारतीय कृषि मानसून का जुआ है। अब मानसून तो चुनावों के मौसम का ख्याल रखने से रहा, सो इसका कोई भरोसा नहीं कि कब इतना मेहरबान हो जाए कि फसलों के ऊपर से पानी बहने लगे और कभी इतना खफा हो जाए कि फसलों का कंठ ही सूख जाए। दोनों ही स्थिति में किसानों की कमर तो टूटनी ही है। ऐसे में किसानों की कजॅमाफी के मद में जो साठ हजार करोड़ रुपए की भारी राशि दी गई है, वह राशि यदि बाढ़ और सूखा से फसलों को बचाने की चिरस्थायी योजना पर खचॅ करने का प्रस्ताव रखा जाता तो हमेशा हमेशा के लिए किसानों का भला हो जाता। आज जब आधुनिक तकनीकी का बोलबाला है तो किसानों के हित में विज्ञान के अधिकाधिक उपयोग को प्रश्रय क्यों नहीं दिया जाता। सभी छोटे-बड़े किसानों को गांवों-कस्बों तक में उन्नत बीजों और उवॅरकों की सप्लाई सुनिश्चित क्यों नहीं की जाती। किसानों को आत्मनिभॅर बनाने के और जतन क्यों नहीं किए जाते। खेती के साथ उद्यानिकी को बढ़ावा देकर मानसून की अनिश्चितता से काफी हद तक बचा जा सकता है। बरसात के मौसम में जहां नदियों में आने वाला उफान अभिशाप बन जाता है, उसका रुख कम बारिश वाले राज्यों की तरफ मोड़कर उसे वरदान में तब्दील क्यों नहीं किया जाता। पूवॅ प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शायद इसी उद्देश्य के मद्देनजर नदियों को जोड़ने का सपना देखा था, तो यदि उनकी सरकार चली गई तो आने वाली यूपीए सरकार ने उस सपने को सिरे से क्यों नकार दिया। क्या सत्तापक्ष और विपक्ष में नेवले और सांप जैसी दुश्मनी ही जरूरी है, क्या देश के व्यापक हित में विरोधी राजनीतिक दलों की योजनाओं पर अमल करना सत्तासीन राजनीतिक दल का कतॅव्य नहीं बनता।
किसानों के कजॅ माफ करने की घोषणा के बावजूद इतनी बड़ी राशि से केवल किसानों का ही भला होगा, इसकी क्या गारंटी है? क्या बिचौलिए इस राशि में अपना हिस्सा नहीं मार लेंगे? देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला जिस रवानी पर है, उससे मुकाबला करना कैसे संभव हो सकेगा? खैर, किसानों और किसानी के जो हालात हैं, उस पर तो अलग से भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है, मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि वित्तमंत्री ने देश के हित की कीमत पर अपनी पारटी के राजनीतिक हितों को जिस तरह तरजीह दी है, उसे देश का मतदाता अच्छी तरह समझता है। सुविधाओं के बदले ताली बजाने वाले हाथ चुनाव में आपके निशान पर ही ठप्पा लगाए या इलेक्ट्रॉनिक मशीन पर आपके चुनाव चिह्न वाला बटन ही दबाए...यह पब्लिक है सब जानती है।
अब बुज़ुर्ग लोग ज़्यादा खुश नज़र आने लगे हैं!
5 months ago
6 comments:
बहुत सही कहा आपने !!
बहुत-बहुत बधाई !
आपक दूसरा वाला ब्लाग (नैनोतकनीक) भी अपने-आप में विशिष्ट है। हिन्दी में ऐसे ब्लागों की अत्यन्त आवश्यकता है। साथ में आपकी प्रस्तुति भी उत्क्ड़्ड़्ष्ट है।
लिखते रहिये।
मेरा दूसरी वाली टिप्पणी गलती से यहाँ चिपक गयी; कृपया इसे यहाँ से हटा दें।
खूब लिखा है भाई आपने तुरत फुरत ,सबसे तेज़ चेनल से भी तेज़
सटीक चिन्तन.........
बहुत बढिया कहा भाई साहब आपने .
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