Saturday, February 16, 2008

और कुछ...वगैरह...वगैरह

हममें से हर कोई भ्रष्टाचार के दुष्परिणामों का रोना रोता रहता है, लेकिन कोई इस तथ्य पर गौर फरमाने की जहमत उठाना नहीं चाहता कि इसकी जड़ कहां है और इसका उन्मूलन कैसे हो सकता है? कैसे बताया जाए कि कोसने भर से किसी समस्या का समाधान संभव नहीं है। यह तो वैसी ही बात हो गई जैसी बचपन में एक कहानी में पढ़ी थी कि पक्षियों को रोज यह पाठ पढ़ाया जाता कि बहेलिया आएगा, दाना डालेगा, जाल बिछाएगा...लोभ से फंसना मत। सारे पक्षी रोज यह पाठ पढ़ते और अंततः सबको यह कंठस्थ भी हो गया और इसका गान करते-करते आखिरकार एक दिन सभी पक्षी जाल में फंस गए।
मुंशी प्रेमचंद ने भी कहानी-नमक का दारोगा- में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का बड़ा ही सहज चित्रण किया है और अंत में ईमानदारी के विजय का संदेश भी दिया है, जिसे शायद आज तक आत्मसात नहीं किया जा सका। उपदेशात्मक बातें सद्ग्रंथों की शोभा बनी रह जाती हैं और जनता का चरित्र स्खलित होता रहता है, फिर इसका जो दुष्परिणाम मानवता को भुगतना पड़ता है, वह तो जगजाहिर है ही।
मैं शायद आज के अपने विषय से भटकता जा रहा हूं। हुआ यूं कि मेरे एक मित्र किसी प्राइवेट कंपनी में मुलाजिम हैं। अभी हाल ही वे अपने किसी जानकार से सालों बाद मिले। हाल-चाल, कुशलक्षेम के बाद उनके परिचित ने पूछ लिया कि आपकी सैलरी क्या होगी? मित्र ने जब सैलरी बताई तो उनके परिचित की सहज ही जिज्ञासा उठी-औऱ कुछ। मित्र ने कहा-औऱ कुछ क्या? कभी-कभी ओवरटाइम भी मिल जाता है। मित्र के परिचित की जिज्ञासा शांत होने का नाम नहीं ले रही थी। उन्होंने दुबारा पूछा-और कुछ वगैरह-वगैरह। अब तो मेरे मित्र की हालत देखने लायक थी। अपने मृदुल स्वभाव के कारण मेरे मित्र ने कोई अप्रिय प्रतिक्रिया नहीं जताई और साफ-साफ कह दिया कि भाई साहब, हर कहीं वगैरह-वगैरह की गुंजाइश नहीं होती औऱ शायद मैंने अपने क्षेत्र का चुनाव इसीलिए किया है कि यदि मैं अपने कतॅव्यपथ पर अग्रसर रहा तो अपनी दक्षता और मेहनत के बल पर मुझे अपना प्राप्य निश्चित रूप से मिल जाएगा।
ऐसा कहकर उन्होंने परिचित से विदा तो ले लिया, लेकिन इसके कई दिनों बाद जब वे मुझसे मुखातिब हुए, तब भी उनकी पीड़ा उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी। वे मुझसे पूछ बैठे कि क्या वेतन और ओवरटाइम आदि ही एक कमॅचारी के लिए परयाप्त नहीं हो सकते। क्या ऊपरी आमदी (जो निश्चित रूप से गलत तरीके से ही होगी) के बिना जीना संभव नहीं है। क्या हम अपनी आवश्यकताओं को अपनी आय के दायरे में रखकर अपना जीवन नहीं बिता सकते। बात तो सोलहो आने सही है। यह सोचना और इस पर अमल करना ही चाहिए। कम से कम हमारे सरीखे युवाओं को तो इसे जीवन में अवश्य ही अपनाना चाहिए, तभी हमारे समाज-देश-राष्ट्र और अंततः विश्व की वास्तविक उन्नति संभव है।
उपदेशात्मक विचार लिखने के लिए माफी चाहता हूं, लेकिन मित्र की असीम पीड़ा को शब्द देना मैं अपना नैतिक दायित्व समझता हूं। शायद अपना कटु अनुभव यहां पढ़कर किसी रूप में उनके दिल पर लगे घाव को मरहम लग सके औऱ कुछ और लोग इस पथ पर अग्रसर हो सकें, तो मैं खुद को धन्य समझूं।

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