Tuesday, February 5, 2008

हे प्रभो आनंददाता, ज्ञान सबको दीजिए

अपना देश तरक्की की राह पर अग्रसर है, इसमें किसी को गफलत नहीं हो सकती। हां, कुछ दकियानूसी लोग अलग-अलग तरीकों से विकास की गति में अवरोध डालने से बाज नहीं आते। यह अलग बहस का विषय हो सकता है, लेकिन मैं यहां न तो खुद इस पचड़े में पड़ना चाहता हूं, न ही आपको इसमें पचाना चाहता हूं।
यहां मैं कुछ दूसरे अनुभव शेयर करना चाहता हूं। आजादी के 60 साल बाद भी हमारे देश की हालत इतनी विकट है कि आज भी लोग घर-बार, परिवार-बच्चों से दूर महज डेढ़-दो हजार रुपए प्रतिमाह की नौकरी के लिए हजारों किलोमीटर दूर रहने को विवश हैं।
हुआ यूं कि अभी 3 फरवरी को किशनगंज से जयपुर की यात्रा के दौरान मुझे गुवाहाटी से आ रहे दो युवकों की परेशानी से रू-ब-रू होने का मौका मिला। दोनों युवक सगे भाई थे और इन्हें आरक्षित टिकट होने के बावजूद जलालत झेलनी पड़ी। हालांकि कमअक्ल टीटी की पेशानी पर भी इस सदॅ मौसम में पसीना चुहचुहाने लगा था, जब उन्हें टिकट होने के बावजूद चाटॅ में इन दोनों भाइयों के नाम ढूंढे नहीं मिलते। यह तो आमने-सामने बैठे हम छहों यात्रियों में सदाशयता थी, जिससे उन दोनों भाइयों को कोई परेशानी नहीं हुई।
इन भाइयों ने 19 दिसंबर को ही दिल्ली में ही 3 फरवरी को गुवाहाटी से नई दिल्ली का रिटनॅ रिजरवेशन गाड़ी संख्या 2505 नॉर्थ-इस्ट एक्सप्रेस में करवाया था। वे निश्चिंत थे लेकिन नियत तिथि पर जब गाड़ी पकड़ने आए तो आरक्षण चार्ट में अपने नाम नहीं देखकर परेशान हो गए। इन्क्वायरी पर पूछताछ की तो उन्हें 57-58 नंबर की बर्थ बता दी गई। जब गाड़ी में पहुंचे तो वहां पहले से दो सज्जन बैठे थे और उनके पास भी 57-58 नंबर बर्थ का टिकट था। थक-हारकर वे अपने टिकट पर अंकिट बर्थ नं. 37-38 पर आ गए, लेकिन यहां भी दो यात्री अपने टिकटों के साथ काबिज थे। जब भी कोई टीटी आता तो हम सबके टिकट चेक करता और उन युवकों के टिकट देखकर खुद ही परेशानी में पड़ जाता। इस बीच 12-14 घंटे बीत गए, मेरे मोबाइल में बीएसएनएल का सिग्नल दिखा तो मैंने रेलजोन को पीएनआर नं. एसएमएस भेजकर कन्फर्म किया तो पता चला कि उनकी टिकट तो 5 फरवरी की थी। टूंडला तक की यात्रा में तो मैं भी उनके साथ था, वे सकुशल अपने गंतव्य दिल्ली भी पहुंच गए। चूंकि वे दोनों भाई इतने पढ़े-लिखे नहीं थे कि रेलवे रिजरवेशन का फॉर्म खुद भर पाते, या फिर उन्हें खुद पर भरोसा नहीं रहा होगा कि वे रिजरवेशन फॉमॅ भर सकते हैं, सो उन्होंने अपने किसी परिचित (जो दलाल भी हो सकता है) के माध्यम से टिकट बनवाया। तारीख लिखने में भूल टिकट बनवाने वाले से हुई या फिर बुकिंग क्लर्क ही 3 को 5 समझ बैठा, कहना मुश्किल है।
हां, देखने लायक बात यह थी कि जैसे ही उन्हें पता चला कि उनका टिकट 5 फरवरी का है और वे 4 फरवरी को ही दिल्ली पहुंच जाएंगे, तो बड़े भाई के दिमाग में तपाक से यह बात आई कि वे दिल्ली पहुंचते ही अपना टिकट कैंसिल करा लेंगे और उससे जो भी बचेगा, उससे मौज-मस्ती करेंगे। अपनी तेज बुद्धि का सबूत उन्होंने मुझे फोन करके दे भी दिया कि उनके टिकट से कैंसिलेशन शुल्क काटकर बची राशि का भुगतान उन्हें कर दिया गया। लालू की रेल में मुफ्त की यात्रा हुई, उसका तो कहना ही क्या?
ऐसे हालात में पीड़ा यह जानकर होती है कि यदि हर किसी को इतना ज्ञान हो कि वह मनीऑर्डर फॉर्म भर ले, बैंक ड्राफ्ट बनवा ले, रजिस्ट्री करा ले तो ऐसी नौबत आए ही नहीं कि किसी को दूसरे पर निभॅर होना पड़े और बाद में उन्हें किन्हीं परेशानियों का सामना करना पड़े।
हां, बुद्धि की मात्रा साक्षरों के साथ निरक्षरों में भी कतई कम नहीं है। मौका मिलने पर भी आदमी ज्ञान अर्जित करने के प्रयास तो नहीं करता लेकिन बुद्धि का इस्तेमाल कर किसी को चूना लगाने से बाज नहीं आता। बुद्धि के साथ ज्ञान का समन्वय हो तो भारत का ही नहीं, मानवता का भी कल्याण हो सकता है।

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