Sunday, December 16, 2007

गुलाबी नगर थिरक उठी--थिरकन--में लोक कलाकारों के संग

पिंकसिटी में शनिवार को एक ही दिन में सूररज की बेरुखी से पारा चार डिग्री नीचे उतर आया और न्यूनतम तापमान ४.८ डिग्री सेल्सियस दजॅ किया गया, इसका अहसास सड़कों पर कम संख्या में चल रहे वाहन भी करा रहे थे। जब कमरे के अंदर रजाई में दुबकने के बाद रूम हीटर चलाने की आवश्यकता महसूस हो रही थी, ऐसे में सैकड़ों लोग खुले आसमान के नीचे बिना दांत किटकिटाते हुए एकटक नजरों से कलाकारों की प्रस्तुतियों को निहार रहे थे। किसी ने सच ही कहा है, कला महसूस करने की चीज होती है और कलाकार जब अपना फन दिखाने को तत्पर हों तो कला के कद्रदान अपने कतॅव्य के पालन से कैसे पीछे हटते, सो करीब दो घंटे तक लोगों ने जमकर लोकनृत्य-लोकसंगीत का आनंद लिया हाड़ कंपाती इस सदॅ रात में।
जी हां, गीत-संगीत की यह सुहानी शाम सजाई थी जयपुर दूरदशॅन ने गुलाबी नगर के जवाहर कला केंद्र के मुक्ताकाशी मंच पर। जयपुर दूरदशॅन की ओर से नववषॅ २००८ की पूवॅ संध्या पर प्रसारित होने वाले कायॅक्रम--थिरकन--की शूटिंग की जा रही थी, दूरदशॅन पर इन कलाकारों की प्रस्तुति का लुत्फ डीडी वन व टू के सहारे रहने वालों के अलावा केबल की सुविधा वाले लाखों दशॅक ३१ दिसंबर की रात उठा सकेंगे, लेकिन मुझे इस कायॅक्रम को साकार होते हुए देखने का अवसर मिला। प्रतिष्ठित कवि और कवि सम्मेलनों के समथॅ संचालक डॉ. कुमार विश्वास और शायरा-कवयित्री दीप्ति मिश्र की एंकरिंग ने लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों से सजे इस कायॅक्रम की रौनक में चार चांद लगा दिए। लोक संगीत-लोक नृत्य के साथ यदि साहित्यिक प्रतिभाएं जुड़ जाएं तो इससे दोनों विधाओं का ही कायाकल्प हो सकता है और जयपुर दूरदशॅन ने इसकी साथॅक पहल की, इसके लिए जयपुर दूरदशॅन के निदेशक नंद भारद्वाज साधुवाद के हकदार हैं।
राजस्थानी लोकनृत्य में नायिका की मनुहार---ठोकर लाग जावेली....बिछिया की टांकी टूट जावेली...से इस संगीत संध्या का आगाज हुआ और फिर ---नैना सूं नैना मिलाय के नाच ल्यो, हिवड़ो सूं हिवड़ो मिलाय के नाच ल्यौ--के बाद कलाकारों ने तेरह ताली और अन्य लोकनृत्यों से राजस्थानी संस्कृति के दशॅन कराए। कायॅक्रम परवान चढ़ता गया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कालबेलिया नृत्य को पहचान दिलाने वाली गुलाबो ने अपने बेटे-बेटियों के साथ जब प्रस्तुति देना शुरू किया तो ऐसे लगा जैसे सांप की लोच इन संपेरों की आत्मा में उतर आई है। अंग-प्रत्यंग का लोच देखते ही बनता था।
इसके बाद मयूर नृत्य में राधा-कृष्ण के साथ गोपियों ने ---बरसाने के मोर कुटीर में मोरा बन आयो रसिया---की प्रस्तुति में छोटी काशी के नाम से ख्यात जयपुर में वृंदावन को साकार कर दिया। गीत-संगीत के स्वर जब आसमान में गूंजने लगे, तो चंद्रमा भी शायद इस संगीत संध्या को देखने का लोभ संवरण नहीं कर सका और मुक्ताकाशी मंच के ऊपर आकर इसका आनंद लेने लगा। जब धरती-अम्बर के संग चंद्रमा भी झूम रहा हो तो फिर कलाकार अपना सवॅश्रेष्ठ प्रदशॅन करने से खुद को कैसे रोक पाते, सो जब बरसाने की लट्ठमार होरी के बीच गोप-गोपियां राधा-कृष्ण पर फूलों की बरसात करने लगे तो श्रोता-दशॅक भी होली के रंग में रंग से गए और अगहन की रात में ही फागुन का मौसम आ गया। द्वापर युग में कृष्ण ने सुदशॅन चक्र नचाया था और कनिष्ठिका अंगुली पर गोवधॅन पवॅत को उठा लिया था, सो कलियुग में कृष्ण बने कलाकार ने साधना और अभ्यास के बल पर फूलों से भरी परात को जब अपनी तजॅनी अंगुली पर नचाना शुरू किया तो लोग वाह-वाह कर उठे।
सदॅ मौसम की मार को भूले दशॅक तो कायॅक्रम के समापन के बाद भी यही मनुहार करते रहे-
काश इस रात की सहर कभी भी आए न
ख्वाब ही देखते रहें हमें कोई जगाए न।

4 comments:

राजीव जैन said...

बिना ठंड में जाए कार्यक्रम से परिचित कराने के लिए आपका आभार

समयचक्र said...

कार्यक्रम से परिचित कराने के लिए आभार

suresh said...

Good.
Suresh Pandit

suresh said...

Good.
Suresh Pandit