पांचवीं-छठी कक्षा में आने के बाद कहानी के साथ नाटक भी हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल हो गया था। ऐसे में हम बच्चों के मन में यह ख्याल आया कि इस नाटक का मंचन किया जाए तो कैसा रहे। ...फिर क्या था ...कुछ दोस्तों ने प्लान बनाया और शुरू कर दी तैयारी। लुक-छिपकर 10-15 दिन के रिहर्सल के बाद दरवाजे पर ही तख्त जोड़कर और बिछावन के चादर का पर्दा बनाकर लालटेन की रोशनी में नाटक खेला गया।
दर्शक भी आस-पड़ोस के परिवार वाले ही थे। उन्होंने सराहने में कंजूसी नहीं की। इसका असर हुआ कि कुछ दिनों बाद दिवाली की रात हमारी बाल मंडली ने एक और नाटक खेलने का प्लान बनाया। मंचन दरवाजे पर ही हुआ, लेकिन इस बार हम बच्चों ने मोहल्ले में सबसे 1-2 रुपये चंदा मांगकर किराये पर लाउडस्पीकर मंगवा लिया था। लाउडस्पीकर पर लोगों से नाटक देखने के लिए आने की गुजारिश का परिणाम यह हुआ कि अच्छी-खासी संख्या में दर्शक जुटे और सभी ने हम बच्चों की खुलकर तारीफ की।
तब हमारे गांव में नवयुवक समिति के बैनर तले गांव के नौजवान और वयस्क दुर्गा पूजा पर होने वाले मेले में धार्मिक और सामाजिक नाटकों का मंचन किया करते थे। शायद उन लोगों को देखकर ही हमारे बाल मन में भी नाटक खेलने की इच्छा ने जन्म लिया हो। दिवाली पर हुए नाटक में दर्शकों से मिली सराहना से उत्साहित होकर हमारी बाल मंडली ने इसके अगले साल नवयुवक समिति से आग्रह किया कि हमलोग भी दुर्गा पूजा मेला में एक नाटक खेलना चाहते हैं। नवयुवक समिति के हां कहते ही मानों हमें मुंहमांगी मुराद मिल गई।मन में एक नये उत्साह का संचार हो गया। शाम को जल्दी पढ़ाई पूरी करने के बाद घर-घर जाकर सभी दोस्तों को साथ लेकर रिहर्सल के लिए पहुंच जाते।
उसी दौरान पहली बार बतौर निर्देशक श्री नूनू झा जी से परिचय हुआ। अभिनय की बारीक बातें इतनी सरलता-सहजता से हम बच्चों को बताते कि उसे सीख लेना आसान हो जाता। आंगिक और वाचिक अभिनय पर बड़ी बारीक पकड़ थी उनकी। उनकी निभाई गई भूमिकाएं और उनके निर्देशन में खेले गए नाटक आज भी हमारे गांव ही नहीं, आसपास के दर्जनों गांवों के लोगों के लिए किंवदंती अथ च मील का पत्थर बने हुए हैं।
गंगानाथ हुए गौण, नूनू झा नाम से ही पहचान
श्री नूनू झा का असली नाम गंगानाथ झा था। हमारे यहां परिवार के सबसे छोटे बच्चे को प्यार से ‘नूनू’ कहने का चलन है। गंगानाथ झा भी भाइयों में सबसे छोटे थे, इसलिए परिवार के बड़े लोगों की जुबान से होते हुए गांव-घर में भी वे नूनू भैया, नूनू कक्का ही कहलाने लगे और समाज में उनका यही नाम प्रचलित हो गया।
...कि विद्यार्थी, नीक हालचाल?
हाई स्कूल के बाद पहले पढ़ाई, फिर रोजी-रोटी के चक्कर में गांव छूट गया। गांव जाने का अंतराल हफ्ते-पखवाड़े से बढ़कर साल-छमाही तक पहुंच गया। जब भी गांव जाता, नूनू कक्का का आशीर्वाद लेना नहीं भूलता था। सबसे पहले यही पूछते...कि विद्यार्थी, नीक हालचाल? पिछले जून में गांव गया था तो सड़क पर ही टहलते हुए मिल गए थे। हालांकि इस बार हाथ में छड़ी आ गई थी। पूछने पर बोले, उम्र का असर तो पड़ता ही है। अभी गांव में एक मित्र से बात हुई तो पता चला कि नूनू कक्का नहीं रहे।....हमारे अभिनय के आचार्य का अवसान हो गया। ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें अपने चरणों में शरणागति प्रदान करें।
16 NOV 2019
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