संपूर्ण चराचर जगत को अपने आलोक से प्रकाशित करने वाले भगवान सूर्य की आराधना-उपासना अनादि काल से होती रही है। इसी क्रम में कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से सप्तमी तक मनाए जाने वाले सूर्य षष्ठी पर्व का महत्वपूर्ण स्थान है। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड के जन-मन में बसे इस पर्व को 'छठ महापर्वÓ भी कहा जाता है। इस पर्व में भगवान सूर्य को अघ्र्य दी जाने वाली सामग्री कच्चे बांस की टोकरी (डाला) में रखकर नदी या तालाब किनारे तक ले जाई जाती है, इसलिए इसे 'डाला छठÓ के नाम से भी जाना जाता है।
ऋग्वेद में देवता के रूप में सूर्य की पूजा का उल्लेख है। कई पुराणों में भी भगवान सूर्य की उपासना की चर्चा की गई है। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य प्रदाता देवता के रूप में माना जाने लगा था। ऐसी मान्यता है कि नियम-निष्ठापूर्वक यह पर्व करने से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है। सनातन धर्म के देवताओं में अग्नि के बाद सूर्य ऐसे अकेले देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है।
छठ पर्व का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और आडंबर व दिखावा से रहित होना है। इस पर्व में न तो मंदिर की जरूरत होती है, न प्रतिमा की, न ऋचाओं-मंत्रों की, न पंडित-पुरोहितों की। पूजन सामग्री जुटाने के लिए भी ज्यादा भागदौड़ अपेक्षित नहीं होती। इसमें बांस की टोकरी, सूप, मिट्टी के बरतनों, दीपकों, गन्ना, गुड़, चावल, गेहूं से निर्मित प्रसाद, शकरकंद, हल्दी-अदरक की गांठ, केला, नींबू जैसी सामग्री का प्रयोग किया जाता है, जो सहज ही उपलब्ध हो जाती हैं। सहकार का भाव भी इस पर्व के मूल में है, जिसके तहत हर व्यक्ति अपने पास उपलब्ध सामग्री खुले मन से आस-पड़ोस में वितरित करता है, जिससे किसी को भी किसी सामग्री की कमी नहीं रह पाती है। पर्यावरण संरक्षण का भाव भी इस महापर्व से अनायास ही जुड़ा हुआ है। इस पर्व में नदी-तालाब-जलाशयों के घाटों की सफाई कर इसे सजाया जाता है, जिससे इनका अलग ही रूप निखरकर सामने आता है। भगवान सूर्य और छठ मइया की आराधना में गाए जाने वाले सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर यह पर्व लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
जिस तरह सूर्य बिना किसी भेदभाव के संपूर्ण जगत पर अपनी कृपा-किरणों की बौछार करते हैं, उसी प्रकार जाति-धर्म-संप्रदाय की सीमाओं से ऊपर उठकर यह पर्व मनाया जाता है। इसी भावना का प्रमाण है कि बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड के अनेक मुस्लिम परिवारों में भी दशकों से छठ पूजा की परंपरा चली आ रही है।
छठ पर्व के रूप में पूरब से प्रस्फुटित सूर्य आराधना की रश्मियां इसे मनाने वालों के अन्य प्रदेशों का रुख करने के साथ ही साल-दर-साल विस्तार पाती हुई संपूर्ण भारतवर्ष को अपनी ज्योति से आलोकित करती जा रही है। विदेशों में भी जहां-जहां इस पर्व को मनाने वाले गए, वे अपने साथ सांस्कृतिक-धार्मिक विरासत के रूप में इस पर्व को ले गए और धीरे-धीरे कहीं लघु तो कहीं वृहद स्तर पर छठ पर्व मनाया जाने लगा है। छठ व्रत प्राय: महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु विशेष मनौती पूरी होने पर कुछ पुरुष भी यह कठिन व्रत रखते हैं। सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नी उषा और प्रत्यूषा हैं। छठ पर्व के दौरान सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) तथा प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (उषा) को अघ्र्य देकर भगवान भास्कर के साथ-साथ इन दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना की जाती है। कमर भर पानी में खड़े होकर भगवान सूर्य का ध्यान करते समय व्रतियों के मन में प्रार्थना का यह भाव रहता है कि हे सूर्यदेव, हमारे तन-मन-जीवन का खारापन मिटाकर इसे निर्मल-मधुर कर दो जिससे बादलों से बरसने वाले पवित्र जल की तरह हम स्वयं के साथ ही जन-गण-मन के लिए मंगलकारी हो सकें।
3 comments:
प्रचुर रोचक जानकारियोंवाला सुन्दर आलेख है। पढकर अच्छा लगा।
बहुत सुंदर लेख...... छठ पर्व की शुभकामनायें
रोचक एवं जानकारीपरक आलेख ...
आभार!
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