Sunday, October 4, 2009

चांदनी रात में कुछ गीत गुनगुनाइए...


गुलाबी नगर में 38 साल पहले साहित्य और संस्कृति से अंतर्मन से जुड़े कुछ लोगों ने तरुण समाज की स्थापना की थी। तभी से इस संगठन ने होली के अवसर पर महामूरख सम्मेलन और शरदोत्सव के रूप में गीत चांदनी का आयोजन शुरू किया। इन दोनों ही कवि सम्मेलनों की आज देश के गिने-चुने कवि सम्मेलनों में गिनती होती है। गुलाबी नगर के बाशिंदों को सालभर इसका इंतजार रहता है। इसके संस्थापक महानुभाव निस्संदेह अब मध्यवय के हो गए होंगे, लेकिन उनके हृदय में तरुणाई अभी शेष है और यह आयोजन अनवरत-अबाध रूप से जारी है। अभी कल शनिवार 3 अक्टूबर को आश्विन की पूनम पर शरद ऋतु की रात जयपुर के जय क्लब लॉन पर गीत चांदनी कवि सम्मेलन हुआ। आइए, गीत चांदनी के कुछ गीत आप भी हमारे साथ मिलकर गुनगुनाइए -
दिल्ली की डॉ. कीर्ति काले ने
जब बंधे बिजली स्वयं ही मोहपाशों में,
चांदनी छिप जाए शरमाकर पलाशों में,
जब छमाछम बाज उठे पायल घटाओं की,
मांग जब भरने लगे सूरज दिशाओं की।
तब हृदय के एक कोने में कोई कुछ बोल जाता है।
रचना से चांदनी और सौंदर्य व मोहब्बत का रिश्ता जोड़ा।

लखनऊ के देवल आशीष ने
हमने तो बाजी प्यार की हारी ही नहीं है,
जो चूके निशाना वो शिकारी ही नहीं है।
कमरे में इसे तू ही बता कैसे सजाएं,
तस्वीर तेरी दिल से उतारी ही नहीं है।।
के माध्यम से प्रेम को रवानी दी।

किशन सरोज ने
बिखरे रंग तूलिकाओं से, बना न चित्र हवाओं का,
इंद्रधनुष तक उड़कर पहुंचा, सोंधा इत्र हवाओं का...
से हवा की फितरत और वाराणसी के श्रीकृष्ण तिवारी ने
रेत पर एड़ी रगड़कर थक गया तो मन हुआ,
अब मैं नदी बनकर बहूं...बहने लगा।
हाथ में पत्थर लिए बच्चे मिले तो मन हुआ...
अब मैं दरख्तों सा फलूं, फलने लगा।।
के माध्यम से अपने ही रौ में बहने का अंदाजे बयां किया।

मेरठ से आए सत्यपाल सत्यम ने
हो गए संपन्न सब उपवास नभ में चांद निकला।।
बुझ गई अनगिन दृगों की प्यास नभ से चांद निकला।।
भावना जितनी अपावन थी सब हुई विसर्जित,
अब सुखद संभावना को रिक्त है मन।।
लहलहा उट्ठा है पतझर में बगीचा,
अब तो बारह मास सावन है या फागुन,
हर दिवस त्यौहार सा उल्लास, नभ में चांद निकला
से चांद के महत्व पर प्रकाश डाला।

इलाहाबाद से आई रागिनी चतुरवेदी ने
मेरे मन का फूल खिला है, हवा बताती है,
शायद तुमने याद किया है, हिचकी आती है।।
जिधर-जिधर जाती हैं नजरें, शगुन दिखाई देते,
फड़क रहीं पलकें रुक जाती नाम तुम्हारा लेते,
पिंजरे की चिड़िया भी कैसा पंख फुलाती है।।
...शायद तुमने याद किया, हिचकी आती है।।
के माध्यम से प्रियतम की यादें ताजी कीं।

बगड़ के भागीरथ सिंह भाग्य ने मीठी राजस्थानी में मरुथली माटी के सौंदर्य और महत्ता को कुछ इस तरह शब्द दिए -
म्हारे खेतां में मौसम मजूरी करे
बाजरो रात-दिन जी हजूरी करे
म्हारे खेतां री रेतां रमे रामजी
आज तन्ने रमा ल्याऊंली
चाल रे सातीड़ा म्हारे खेतां में आज
तन्नै काकड़ी खुआ ल्याऊं ली।।

ग्वालियर से आए रामप्रकाश अनुरागी ने सुनाया -
हम नदी बनकर बहे तो, सिंधु का जल हो गए।
आग सी दहती किरण से, लिपट बादल हो गए।।
फूल-फल-पत्ते टहनियां, हम तना, जड़ भी हम्हीं,
सृष्टि-बीजों को बचाने हम धरातल हो गए।।

मध्य प्रदेश के खरगौन से आए दर्द शुजालपुरी ने
उधर से तुम इधर आओ, इधर से हम उधर आएं,
हमारी राह-रोशन को सितारे भी उतर आएं।।
हमें दुनिया से क्या मतलब, हमें अपनों से क्या रिश्ता
हमें तुम ही नजर आओ, तुम्हें हम ही नजर आएं।।
के माध्यम से प्रेम में दो दिलों के एकाकार होने की कथा काव्य में कही।

गीत चांदनी का संचालन कर रहे जयपुर के हास्य व्यंग्य के कवि सुरेंद्र दुबे ने भी कुछ गंभीर पंçक्तयों से अपने फौलादी इरादों का इजहार किया -
मेरे कदमों का मंजिल से नाता है,
मुझको भी इतिहास बनाना आता है।।
हर इक बाधा शर्म से पानी-पानी है,
मेरी गति से दूरी को हैरानी है।।
हर पत्थर के मकसद से परिचित हूं मैं,
गड्ढों की फितरत जानी पहचानी है।।
मेरे पांवों से हर कांटा नजर चुराता है,
मुझको भी इतिहास बनाना आता है।।
मेरे कदमों का मंजिल से नाता है

1 comment:

DUSHYANT said...

us ayojan ke shuru me main bhee thaa..jo geet chandnee harish bhadani ji ke nidhan ke doosare din ho aur unhe yaad na kiya jaye..us ayaojan ko kyonkar yaad kiya jaye ..haalat yahan tak bhee thee ki ek saathee mitr(premchand gandhi) ne jab sanchaalak (jinhe ap jante hain) ko sms kar ke yaad dilaya to bhee ku6 na huaa..kya kahen? apse aise ayojan ki rapat ki ummed nahin thee wo bhee bina ye bataye ki harish ji ko yaad nahin kiyaa jo manch ke lokpriy kavi rahe hain..jinhe rajasthan ka bachchan kahaa gayaa hai...
halanki manchiy durgati ke daur me ye aswabhavik nahin hai ..bhai mangalam ji..aapse hi shikayat hai filhaal to..