Sunday, August 3, 2008

छोटी रेलयात्रा, बड़े अचरज


जब भी ट्रेन से सफर करता हूं, खट्टे-मीठे अनुभव होते ही हैं। यह मेरे अकेले की बात नहीं है, आप लोगों को भी ऐसे अनुभव अक्सर होते ही होंगे, लेकिन इस बार मुझे जो अनुभव हुए, उसे शेयर करने की इच्छा हो रही है। अभी हाल ही मुझे जयपुर से कोटा जाना पड़ा। मित्रों ने ट्रेन से जाने की सलाह दी। जाने वाली ट्रेन दिन में ही थी, सफर महज चार घंटे का था, फिर भी भीड़ से बचने के लिए आरक्षण करा लिया था। कोई परेशानी नहीं हुई। पैसेंजर गाड़ी से लौटना था, लेकिन भीड़ का डर तो था ही, रात का सफर था, सो वापसी का आरक्षित टिकट भी साथ ले गया था। 11:25 बजे ट्रेन की रवानगी थी। 11 बजे स्टेशन पर पहुंच गया। मुझे गाड़ी संख्या 193 कोटा-जयपुर पैसेंजर पकड़नी थी। वहां लगे इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड पर गाड़ी संख्या 1767 के कोटा से जयपुर जाने की सूचना प्रसारित हो रही थी। गाड़ी संख्या 193 की कहीं कोई सूचना नहीं थी। यह पहला अचरज था। पूछताछ काउंटर पर जानकारी की तो मैडम ने कहा-भागकर जाओ, गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर चार पर खड़ी है। दौड़ता-भागता पहुंचा तो ट्रेन तो जरूर खड़ी थी, लेकिन उसपर शामगढ़-कोटा-जयपुर-बयाना लिखा था। गाड़ी नंबर तो कहीं दिख नहीं रहा था। दूसरे यात्रियों से पूछताछ की तो पता चला कि यही ट्रेन जयपुर जाएगी। आरक्षण चार्ट का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था कि उसमें अपना नाम और बर्थ नंबर देखकर तसल्ली की जाए। सहयात्रियों से एक बार और तस्दीक की और भगवान का नाम लेकर टिकट पर अंकित बोगी में साइड अपर वाले आरक्षित बर्थ पर बैठ गया। रास्ते में आए टीटी ने आरक्षण चार्ट देखकर तस्दीक कर दी कि ट्रेन भी सही थी और बर्थ भी। थोड़ी देर पहले ही ढाबे पर खाना खाया था और कोटा के पानी का स्वाद कुछ भाया नहीं, सो दो लीटर वाला मिनरल वाटर का बोतल खरीद लाया था कि रास्ते में तृçप्त होती रहेगी। पानी पीकर सो गया। सवाई माधोपुर आने पर नींद खुली। वहां 20 मिनट का स्टॉपेज था, सो नीचे उतर आया। पानी की बोतल के अलावा अपने पास कोई सामान नहीं था, सो उसकी सुरक्षा की चिंता किए बिना बर्थ पर ही छोड़कर नीचे उतर आया। वहां लगे भोंपू पर भी गाड़ी संख्या 1767 के ही आगमन और प्रस्थान की सूचना प्रसारित हो रही थी। गाड़ी संख्या 193 का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था। खैर, प्लेटफॉर्म पर चहलकदमी करता रहा। गाड़ी खुलने से पहले वापस अपने बर्थ पर आया तो वहां एक महाशय आराम फरमा रहे थे। जब मैंने बर्थ रिजर्व होने के बारे में बताया तो वे उतरकर दूसरी सीट पर चले गए। मैंने बर्थ पर देखा तो पानी की बोतल नदारद थी। ट्रेन चल चुकी थी, आधे से ’यादा सफर बाकी था। आगे के स्टेशनों पर न तो इतनी देर का स्टॉपेज था कि प्यास लगने पर उतरकर पानी खरीदा जा सके और हर स्टेशन पर प्लेटफॉर्म पर पेयजल उपलब्ध हो, इसकी भी क्या गारंटी थी। सो करीब सवा दो घंटे का सफर इसी चिंतन में बीत गया कि क्या पानी के भी चोर हो सकते हैं या आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भोजन तो दूर, पानी तक लोगों को उपलब्ध नहीं हो सका है। बचपन में किराने की दुकान पर नमक को उपेक्षित सा बाहर ही रखा देखता था। अमूमन ऐसी धारणा होती थी कि नमक जैसी साधारण वस्तु (जो तब बमुश्किल 25 पैसे किलो होती थी) को कौन चुरा ले जाएगा। आज वही नमक दुकानों में शीशे के पीछे शोकेस में शोभायमान होता है। बदलते हुए समय और आयोडीन की मिलावट ने नमक की तकदीर संवार दी और कीमत भी। इतना ही नहीं, यह आम आदमी से दूर भी होता जा रहा है। महज सब्जी में कम नमक होने की बात पर पत्नी-बेटी की हत्या की खबर भी पढ़ने को मिलती है और बाद में हत्यारे को इस बात पर अफसोस होता है कि घर में नमक खरीदने के पैसे नहीं थे। पैकेटबंद नमक बिकने से अपनी इच्छा व सुविधानुसार अठन्नी-रूपैया का नमक खरीदना मुश्किल हो जाता है।
ऐसे में यह सोचने को विवश हूं कि ट्रेन में सामान की सुरक्षा की तो कोई गारंटी नहीं होती, सो यात्रा के दौरान चेन और ताला साथ रखना जरूरी होता है। तो क्या ऐसा समय भी आएगा जब ट्रेनों में पानी की डिस्पोजेबल बोतल की सुरक्षा का भी इंतजाम साथ लेकर चलना होगा।

4 comments:

अमित said...

सही कहे भइया लोग पानी चुरा ले गए.. शायद ऐसी ही किसी घटना पर कहा गया होगा.. आंखों से सूरमा चुरा ले गए.. जमाना काफी बदल गया है.. दुकान के बाहर बोरे मं नमक रखा हुआ मैंने भी देखा है..

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप कोटा आए और बिना मिले चले गए तो हादसा तो होना था। बोतल चोरी चली गई, इतना ही हुआ।
आप को जानकारी नहीं आजकल बच्चे ट्रेनों में से खाली और असुरक्षित बोतलें एकत्र करते हैं। उन में नल का पानी भरते हैं और तीन-तीन रूपए में वापस यात्रियों को बेचते हैं। ऐसे ही किसी बालक की नजर पड़ गई होगी। लेकिन अब की कोटा आएँ तो मिले बिना न जाएँ।

PD said...

चलिये अब वापस कोटा जाईये और दिनेश जी से सलाह लेकर केस-मुकदमा लड़िये.. :D

Anil Kumar said...

नमक में आयोडीन मिलाने पर १ किलो में सिर्फ २५ पैसे बढ़ते हैं। लेकिन बोरे से प्लास्टिक की थैली में डालने से, और टीवी पर अभिनेता को नचाकर विज्ञापन दिखाने से दुगने-तिगुने दाम बढ़ जाते हैं।

रही बोतल की बात, तो जी मैं बोतल के बजाय थरमस लेकर उसे अपने थैले में डाल लेता हूं। इससे अधिक क्या करेंगे? :)