Tuesday, January 1, 2008

...और शुरू हो गया 2008 का सफर


जी हां, करीब एक सप्ताह पहले से ही हमारे भारत देश में भी लोगों ने नववषॅ के स्वागत के लिए आयोजनों की तैयारियां शुरू कर दी थीं, फिर भी यह शुभ घड़ी आते-आते मुझे कुछ ऐसा लगा जैसे कि हम सब जबदॅस्ती ही इस अवसर को त्यौहार के रूप में मना रहे हैं। किसी विद्वान ने सभ्यता और संस्कृति में अंतर बताते हुए कहा है कि सभ्यता में हम जीते हैं और संस्कृति हमारे अंदर जीती है-हमारे मन में- हमारी आत्मा में... और बहुत हद तक यह सच भी है।
सो, मुझे इस साल के आते-आते ऐसा महसूस हुआ कि भारतीय संस्कृति में अन्य सभ्यताओं को अपनाने की जो अदम्य शक्ति है, उसी का परिणाम है कि देखादेखी हम सब पहली जनवरी को त्यौहार के रूप में सेलिब्रेट करने लगे हैं।
भारतीय महीनों में माघ शुक्ल पक्ष पंचमी यानी वसंत पंचमी से ही फाग की तैयारियां शुरू होने लगती हैं। लोग ही क्या, प्रकृति भी मानों सरसों और टेसू के फूल खिलने से फागुन के रंग में रंग जाती है। और फिर इसमें अमीर-गरीब, शहरी-देहाती, नौकरीशुदा-बेरोजगार, नर-नारी, कुंवारे-अविवाहित, मालिक-नौकर---या कहें कि विभाजन की जितनी भी रेखाएं समाज में खिंची हुई हैं या खींच दी गई हैं, होली का त्यौहार आते-आते खुद-बखुद मिट जाती हैं। फागुनी गीतों की बयार और रंग-अबीर की बौछार से जो खुमार दिलो-दिमाग पर छाता है, क्या मजाल कैसी भी बेहतरीन कही जाने वाली शराब में ऐसा नशा मिले। लगता है मैं अतिशयोक्ति नहीं कर रहा, आप सब भी इसके साक्षी होंगे ही।
अंग्रेजी नववषॅ मनाने के दौरान भी जब तक पत्रों और ग्रीटिंग काड्सॅ के माध्यम से मंगलकामनाओं का आदान-प्रदान होता था, कुछ रचनात्मकता बची हुई थी। दिल में अपने अजीज के लिए जो भावनाएं उठती थीं, पत्र या ग्रीटिंग काडॅ में अभिव्यक्ति पा जाती थीं और इन भावनाओं को लोग सालोंसाल सहेजकर रखते थे, लेकिन मोबाइल और इंटरनेट ने तो मानो भावनाओं के प्रस्फुटित होने के रास्ते ही अवरुद्ध कर दिए हैं। मोबाइल पर आपने मुंबई में रहने वाले किसी दोस्त को एसएमएस भेजा हो और वही एसएमएस आपको कोलकाता के किसी दोस्त ने भेज दिया, जो मुंबई वाले आपके दोस्त को जानता भी न हो। मैसेज फॉरवडॅ करने का यह चलन इतना बोर करता है कि मैसेज भेजने का मन ही नहीं करता और न मैसेज पाने पर ही हृदय रूपी कमल खिल पाता है। मैसेज फॉरवडॅ होते-होते ऐसे गड्डमड्ड हो जाते है कि कौन सा मैसेज किसने भेजा था और उसमें कोई साथॅक संदेश भी था या नहीं। महज अल्फाजों में रद्दोबदल करके होली का मैसेज दीवाली और दशहरा होता हुआ नववषॅ सहित सभी अवसरों पर काम आता रहता है। आज बहुतेरे मित्रों के मैसेज की बजाय जब उनके फोन नंबर मोबाइल स्क्रीन पर दिखे तो मैंने उनकी बधाई लेने से पहले जिज्ञासावश पूछ ही लिया कि भाई साहब, संदेश देने के लिए मैसेज करना ही सस्ता पड़ता है, तो उनका कहना था कि मैं वॉयस मैसेज देना चाह रहा था। कई और मित्रों का कहना था कि इस बार मैंने अपेक्षाकृत कम मैसेज भेजे औऱ मैसेज आए भी कम। तो ऐसे में मेरा निवेदन तो यही है कि यदि मोबाइल पर मैसेज भेजकर ही हम शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करना चाहें, तो हम दिल से निकलने वाली भावनाओं को ही भेजें, न कि प्रचलित मैसेज को फॉरवडॅ करते रहें। प्रख्यात कवि उदयप्रताप सिंह की दो पंक्तियां उधार लेकर इसका समापन करता हूं---
मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पता
रखते थे कैसे खत में कलेजा निकाल के।
आप सब को नए वषॅ में नए वषॅ का प्रथम प्रणाम और दिली शुभकामनाएं।

2 comments:

Ashish Maharishi said...

वाकई आपने तो दिल की बात कह डाली

Rajani Ranjan said...

Dear Mangalamji, It was really a matter of joy to go through the texts penned by you. I have meticulously gone through all the words posted by you on your site. The flow of the language is quite impressive and it appears as if we are reading an article of a well known columnist. Your collections and comments in the 'dil se dil ki bat' and in the 'rajanigandha... ' followed by 'Mudit huye modi and 'aur shuru ho gaya 2008 ka safar' have made me habituated of manglam-manavi blogger.com and whenever I find an opportunity I visit this site in search of something new from your pen.
Pl. keep it on and don't disappoint your fans like me.

Thank you for creating this site. Wish you a very happy new year.

Rajani Ranjan
Asst. Director