Sunday, October 21, 2007

...ऐ दुनिया, तुमने मुझे भुला दिया

यह किसी भूले-बिसरे फिल्म के गाने का मुखड़ा है, जिसे मैं खुद भी भूल चुका हूं, लेकिन आज जयपुर के पिंकसिटी प्रेस क्लब में आयोजित राजेंद्र बोहरा स्मृति काव्य पुरस्कार समारोह में बार-बार ये शब्द मुझे झकझोरते रहे।
साहित्य में न तो मेरी पैठ है और न ही मैं साहित्य साधना करने की क्षमता रखता हूं, हां, बचपन में मिले संस्कार कुछ न कुछ पढ़ने या यूं कहें कि स्वाध्याय के लिए प्रेरित करते रहते हैं। पढ़ने के साथ ही सुनने का भी शौक शुरू हुआ तो बीबीसी हिंदी सेवा से काफी गहरे तरीके से लगाव हुआ। उन दिनों बीबीसी की सांध्यकालीन सेवा में साहित्य के निमित्त सप्ताह में एक दिन तय होता था। उस सभा में कई बार राजेंद्र बोहरा प्रस्तोता हुआ करते थे। उनके स्वर और प्रस्तुति से ऐसा आभास अवश्य होता था कि इनके खुद भी साहित्य अथ च मानवता से भी सरोकार हैं। पैशन जब प्रोफेशन बना और नियति ने मेरे कदमों का रुख गुलाबीनगर की ओर किया तो पता चला कि वे वाकई अच्छे कवि थे राजेंद्र बोहरा के दिवंगत होने के बाद उनकी स्मृति को संजोए रखने के लिए उनके परिजनों ने यह पुरस्कार शुरू किया है जो किसी रचनाकार की प्रथम कृति के लिए दिया जाता है। इस बार यह सौभाग्य मिला जयपुर के ही प्रेमचंद गांधी को।
समारोह में वक्ता भी थे, और वे थे तो कुछ न कुछ कहते अवश्य। वे बोले भी, साहित्य की दुदॅशा पर चिंता भी जताई गई, काव्य के छंदों के आवरण से मुक्त होने पर भी बहुत कुछ कहा गया, लेकिन कथ्य यदि सशक्त है तो कविता बोलेगी अवश्य और पाठकों-साहित्यप्रेमियों और कुछ हद तक कहें तो समीक्षकों-आलोचकों के सिर चढ़कर भी। यूं तो इसके असंख्य उदाहरण हैं, मगर मेरी अल्पज्ञता की सीमा है, सो मैं मात्र दो उदाहरण से अपनी बात रखना चाहता हूं, छंदों में बंधी रामचरितमानस के दोहे चौपाइयां और कविवर सूयॅकांत त्रिपाठी निराला की ---वह तोड़ती पत्थर---क्या हर किसी की जुबान पर नहीं हैं। अतः हमें कविता की चिंता तो नहीं ही करनी चाहिए, हां उसके कथ्य पर अवश्य ही ध्यान होना चाहिए, जिससे मानवता की दशा का चित्रण हो, उसे दिशा मिले। पुरस्कृत कवि प्रेमचंद गांधी की काव्यकृति---इन दिस सिम्फनी--में ये तत्व बड़ी ही कुशलता से संजोए गए हैं।
अब मेरी वह पीड़ा, जिसके लिए मैं यह सब कहने को विवश हुआ हैं, बीबीसी हिंदी सेवा को भी अपने पूववॅती साथियों के यादों से भावी पीढ़ी को परिचित कराने के प्रयास अवश्य करने चाहिए। हां, समाचार प्रसारणों के बीच साहित्य को भी नियमित रूप से स्थान मिले तो श्रोता अवश्य ही उपकृत होंगे। इस कदर किसी को भुलाना ठीक नहीं होता।

1 comment:

राजीव जैन said...

आपकी चिंता जायज है

अगर हम ही भुला देंगे तो कौन याद रखेगा