Tuesday, October 23, 2007

....मिलजुल कर एक सपना देखें


--समय के दपॅण में सुख-दुख अपना देखें, आओ हम तुम मिलजुल कर एक सपना देखें...बहुत पुरानी फिल्म के गाने का यह मुखड़ा आज नए सिरे से बहुत कुछ सोचने को विवश कर गया। आजकल तो फिल्मों के जो गाने होते हैं, उन्हें गुनगुनाने का दिल नहीं करता, हां, सुनकर रोना जरूर आता है, सुनने या बार-बार सुनने का तो सवाल ही नहीं उठता।
इन दिनों दैनिक समाचार पत्रों और मासिक पत्रिकाओं में ब्लॉग पर काफी कुछ लिखा जा रहा है। हम हिंदी वालों के लिए अपने नितांत वैयक्तिक विचारों को सावॅजनिक मंच पर लाने का यह सशक्त माध्यम जो ठहरा। हाल ही प्रकाशित ऐसी ही एक पत्रिका में हिंदी में कम ब्लॉग लिखे जाने या यूं कहें कि इसे बरतने वालों की कम संख्या पर चिंता जताई गई थी। चिंता वाजिब थी, एक अरब से अधिक आबादी वाले देश में हिंदी ब्लॉगसॅ की संख्या अभी हजारों में ही है।
अब मैं अपनी पृष्ठभूमि से आपको परिचित कराऊं, फिर इस विचारगंगा को गंगोत्री से आगे बढ़ाएंगे। मेरा गांव बिहार के वैशाली जिले के अग्रणी गांवों में शुमार किया जाता है। बिजली तो यहां ३०-४० बरसों से है, खंभे भी गड़े हैं, उनपर तार भी हैं, कई स्थानों पर ट्रांसफॉमॅर भी हैं, लोगों ने मीटर भी लगवा रखे हैं तथा नियमित रूप से बिल भी भरते हैं, लेकिन इन तारों में प्राणतत्व का संचार कभी-कभार ही होता है और आज भी लोगों को केरोसिन के सहारे ही अंधेरे को मिटाने का जतन करना पड़ता है।
फोन की कमी गांव के तथाकथित अभिजात्य लोग दशकों से महसूस कर रहे थे, कई तो टेलीफोन महकमे में राज्य स्तर पर शीषॅ पर भी पहुंच गए, लेकिन व्यवस्थागत बीमारियों से छुटकारा मुश्किल से ही मिल पाता है, सो फोन नहीं लगे तो नहीं लगे। गिनीज वल्डॅ रिकॉडॅधारी सांसद रामविलास पासवान जब दूरसंचार मंत्री बने तो गांव में बीएसएनएल का एक्सचेंज खुल गया और काफी लोगों ने टेलीफोन कनेक्शन लिए। लेकिन फिर भी टेलीफोन की पहुंच एक सीमित तबके तक ही थी। अभी पिछले मई-जून में जब मैं गांव गया तो मुझे संचार क्रांति के दिव्य दशॅन हुए। क्या संपन्न क्या विपन्न, क्या मालिक क्या मजदूर, क्या जमींदार क्या किसान, रिक्शा खींचने वाले और उनपर बैठने वाले सभी के हाथों में मोबाइल हैंडसेट देखकर मन गदगद हो गया। तब मुझे अहसास हुआ कि भारत में कोई भी क्रांति बिना गांवों तक पहुंचे पूरी नहीं हो सकती। आजादी की लड़ाई में भी गांव शहरों से किसी मायने में पीछे नहीं थे।
अब मैं अपने आज के विषय पर आपको वापस लाता हूं। उक्त पत्रिका ने हिंदी ब्लॉगसॅ की कम संख्या की जो चिंता जताई है, उसका एक ही तोड़ है। खुली आंखों से मैं एक सपना देख रहा हूं और यह एक दिन अवश्य ही सच होकर रहेगा, जब हमारे देश के सभी गांवों के घर-घर में कम्प्यूटर होंगे, लोगों में कम्प्यूटर लिट्रेसी होगी, इंटरनेट का इस्तेमाल सुगम होगा, कम्प्यूटरों को बिजली की प्राणवायु के लिए किसी सुखेन वैद्य का इंतजार नहीं करना पड़ेगा, मनचाही बिजली मिलेगी, भले ही मनमोहन सिंह का परमाणविक बिजली के लिए अमेरिका से करार हो न हो। और फिर इंटरनेट की नित नवीन तकनीकों का उपयोग करने में भारतीयों या फिर हिंदीभाषियों की महारथ को कोई चुनौती नहीं दे सकेगा।
---भारतमाता ग्रामवासिनी----कविता महज शब्दों को छंदों में बांधने की युक्ति नहीं है, बल्कि यही हकीकत है कि गांधी के गांवों में ही भारत माता की आत्मा बसती है। जड़ों को सींचा जाएगा तो पत्ते तो लहलहाएंगे ही। आईए, हम सब मिलकर सामूहिक रूप से यह सपना देखें और ईश्वर करेगा तो यह सपना अवश्य ही साकार होगा। जय हिंदी---जय हिंद---जय गांव
(व्यक्तिपरक अनुभूतियों के सहारे व्यष्टिगत चिंता जताने की जुरॅत करने के लिए क्षमायाचना सहित)

5 comments:

राजीव जैन said...

काश की आपकी तमन्‍ना पूरी हो
आपके गांव में खंभों के तारों में बिजली का करंट भी दौडे।

चिंता न करें
कम्‍प्‍यूटर आएगा, इंटरनेट आएगा और देश में एक करोड से ज्‍यादा ब्‍लॉग होंगे

इसी शुभकामना के साथ

Udan Tashtari said...

जय हिंदी---जय हिंद---जय गांव


-उत्तम विचार. एक दिन सभी कामनायें पूर्ण होंगी. अनेकों शुभकामनायें.

अनिल रघुराज said...

बिजली नहीं पहुंची, लेकिन मोबाइल पहुंच गया। जो लोगों के हाथ में है, उसे वो खुद कर ही लेते हैं। लेकिन जो सरकार के हाथ में है, उसका वो क्या कर सकते हैं?
देखिए विकास की राह बड़ी घुमावदार होती है। पहले ये, या पहले वो...नहीं कहा जा सकता।
हिंदी में ब्लॉगिंग को लेकर मैं भी काफी उत्साहित हूं।

Ashish Maharishi said...

शुभकामना

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

दौड़ेगा मंगलम जी इन तारों और खंभों में भी करंट दौड़ेगा। आखिर ये भारत है जहां लोग मर जाते हैं पर उनके मुकदमे रह जाते हैं। 50 साल बाद ही सही फैसला तो आता ही है। ऐसे ही आपके गांव भी बिजली आएगी और एक दिन आप वहां बैठकर भी ब्लाग लिखेंगे।