Wednesday, November 9, 2011

नारायणी में स्नान, नारायण के दर्शन


आज कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी पर बचपन या कहें किशोरावस्था की अचानक याद आ गई। मेरे गृह जिला वैशाली के मुख्यालय हाजीपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर नारायणी (गंडक) नदी के किनारे कौनहारा घाट पर श्रद्धालुओं का भारी मेला भरता है। हर साल हम भाई-बहनों की दिली ख्वाहिश होती थी कि बाबूजी से कैसे भी मेला जाने की अनुमति मिल जाए। बाबूजी की दमा की बीमारी तथा बूढ़ी दादीजी की देखभाल की जिम्मेदारी के कारण मां को इन धार्मिक प्रयोजनों में सहभागिता का अवसर नहीं मिल पाता था, लेकिन मेरी सबसे बड़ी चाची (जिनकी कोई संतान नहीं थी) बिना नागा हर साल इस पुण्य वेला में नारायणी-स्नान करने अवश्य जाती थीं। तीन-चार दिन पहले से ही हम भाई-बहन चाची की खुशामद में लग जाते थे कि बाबूजी को मनाकर वे हमें भी अपने साथ ले चलने को राजी कर लें। बूढ़ी दादी का भी बिना शर्त समर्थन हमें मिलता था और देर-सवेर बाबूजी भी हमें भी मेला जाने की इजाजत दे ही दिया करते थे। इस मेला में जाने पर ही पता चला कि वैशाली की विश्वप्रसिद्ध ऐतिहासिकता से भी कहीं बढ़कर हाजीपुर की ऐतिहासिकता है। अमूमन हम आज के दिन ही कौनहारा घाट पहुंच जाते और जहां जगह मिलती, अपने आस-पड़ोस के लोगों और दूर-दूर के रिश्तेदारों को खोजकर उनके साथ जगह छेककर अपना ठिया बना लेते। वहां गज-ग्राह के मंदिर में जाकर बाल मन गौरव से भर जाता कि हमारी इसी धरती पर कभी भगवान विष्णु को एक हाथी की पुकार सुनकर आना पड़ा था।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विष्णुभक्त गज एक बार नारायणी नदी में पानी पीने गया तो जल में छिप ग्राह उसका पैर पकड़कर उसे खींचने लगा। गज ने बार-बार उससे छोडऩे की विनती की, लेकिन ग्राह ने एक न सुनी। इस पर गज ने अपने प्रभु की शक्ति को याद करते हुए ग्राह से कहा कि जब तक मेरे विष्णु हैं, तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। इस पर ग्राह उसे खींचकर पानी में ले जाने लगा। गज ने आत्र्त स्वर में भगवान विष्णु को पुकारा तो क्षणभर में वे प्रकट हो गए। इससे प्रफुल्लित गज ने ग्राह को ललकारते हुए कहा कि अब बताओ-कौन हारा? भगवान ने दुष्ट ग्राह को मारकर अपने प्रिय भक्त गज को मुक्ति दिलाई। आज भी गजेंद्रमोक्ष के श्लोक इस पौराणिक कथा की पुष्टि करते हैं। भगवान विष्णु अर्थात हरि के आने के कारण ही प्राचीन समय में इस शहर का नाम हरिपुर था, जिसे कालांतर में मुगल शासनकाल में हाजी शमसुद्दीन के नाम पर हाजीपुर कर दिया गया। न जाने हमारे राजनेताओं को इस गौरव का भान क्यों नहीं होता कि वे मुगल शासक हाजी शमसुद्दीन के नाम पर आज तक हाजीपुर नाम को ढो रहे हैं। कौनहारा घाट पर ही नेपाली छावनी मंदिर है, जो अपनी काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है। वैशाली, हाजीपुर या कहें कि बिहार के राजनेताओं की ही कमजोर इच्छाशक्ति का दुष्परिणाम यह नेपाली छावनी भुगत रही है, अन्यथा यहां बने काठ के मंदिरों पर जितनी बारीकी से कलाकारी उकेरी गई है, उसके सामने अजंता-एलोरा की कलाकृतियां कहीं भी न टिकें।
इस मेले के साथ ही गंडक के उस पार सोनपुर का विश्वप्रसिद्ध मेला भरता है। इसे हरिहर क्षेत्र कहा जाता है, जहां भगवान विष्णु और शंकर एक साथ विराजते हैं। कार्तिक पूर्णिमा पर तड़के तीन-चार बजे ही नारायणी में डुबकी लगाने के बाद चाची से अनुमति लेकर अपने हमउम्र दोस्तों के साथ हम सोनपुर का रुख कर लेते थे। कौनहारा से सोनपुर की लगभग तीन-चार किलोमीटर तथा कई किलोमीटर में फैले सोनपुर मेले को हम बिना किसी थकान के अपने नन्हे कदमों से ही नाप देते थे। पाथेय के रूप में नया चिवड़ा (पोहा), गुड़ और डाला छठ महापर्व का प्रसाद ठेकुआ-टिकड़ी ही हमारा नाश्ता और भोजन सभी हुआ करते थे। गिनती के पांच-दस रुपए किसी बार बाबूजी से मिल जाते थे तो कई बार उनकी आज्ञा की अवहेलना कर मेला देखने की सजा के रूप में खाली हाथ भी जाना पड़ता था। ऐसी स्थिति में मेला में कुछ खरीदने की हमारी ख्वाहिश भी जन्म नहीं ले पाती थी, लेकिन उस मानव समुद्र में सामाजिकता के विकास के कई पाठ वहां सहज ही सीखने को मिल जाते थे। मेले में खोये बच्चों-बुजुर्गों को उनके परिजनों तक पहुंचाने के लिए लाउड स्पीकर पर अनाउंस करते स्काउट के जवान, पग-पग पर व्यवस्था संभालने को तैनात विभिन्न संगठनों के स्वयंसेवक, रेलवे, कृषि विभाग, पुलिस सहित विभिन्न सरकारी विभागों की कार्यप्रणाली को दर्शाती प्रदर्शनियों में संपूर्ण भारतीयता के दर्शन से जो सीख मिली, उसे कैसे भुलाया जा सकता है।
हाई स्कूल पास कर जब कॉलेज में गया तो कुछ तो पढ़ाई का बोझ, फिर मा-बाबूजी से दूर रहने के कारण आत्मानुशासन का अंकुश कि अकेले रहते हुए भी कभी मुजफ्फरपुर से हाजीपुर जाकर मेला देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका। कॉलेज-यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी करने के बाद हाजीपुर तो क्या, बिहार ही बहुत पीछे छूट गया। बचपन के मित्र जो अब भी सौभाग्य से वहां हैं, शायद इन मेलों की भीड़ का हिस्सा बन पाते होंगे। तकनीक जब आधुनिकता की सीढ़ी पर नित नए परवान चढ़ रही है, न जाने मेले का स्वरूप भी अब कितना बदल गया होगा। विगत करीब तीन दशक से जब भी कार्तिक पूर्णिमा आती है, दिल में एक कसक सी उठती है और सोचता हूं कि अगले साल अवश्य ही ऐसी जुगत बैठाऊंगा कि इस मेले में जाऊं, लेकिन कब यह दिन दुबारा आ जाता है और मन में मलाल लिए एक साल और इसी उधेड़बुन में बिताते हुए पुरानी यादें संजोने को विवश हो जाता हूं।

2 comments:

varsha said...

bahut achchi post...कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी ke bahane aapne kayee baras ek saath choo liye.

manglam said...

Thanks Madam.....