Monday, April 28, 2008

ये कहां आ गए हम...?

किसी पुरानी फिल्म के गीत के मुखड़े से कुछ शब्द उधार लेकर आज अपने दिल की बात शेयर कर रहा हूं। ऐसा लगता है कि वर्तमान दौर में मनुष्य में संवेदनाएं खत्म हो गई हैं या फिर वह संवेदनाओं को शब्द देने की कला भूलता जा रहा है।
अभी हाल ही किसी आत्मीय प्रियजन के असामयिक निधन के बाद उनकी स्मृति में हुई प्रार्थना सभा में शामिल होने का मौका मिला। यह आयोजन आम शोकसभाओं से कुछ हटकर था। निरगुण ब्रह्म के उपासक संत कबीरदास के भजन सहज ही लोगों को `श्मशान वैराग्य´ का अहसास करा रहे थे। इसके बाद कुछ प्रियजनों ने दिवंगत महानुभाव से जुड़े संस्मरण सुनाए। ऐसे ही एक सज्जन का कहना था कि माता-पिता के पापकरमों के कारण ही उनके रहते हुए संतानें अकाल काल कवलित हो जाती हैं। अब उन्हें कैसे बताया जाए कि वे शोकसंतप्त परिवार का शोक कम करने आए थे या उनसे जन्म-जन्मांतर के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा लेने आए थे। ऐसी बातों से अपराधबोध से ग्रसित हो दिवंगत के वृद्ध माता-पिता यदि किसी न किसी रूप में स्वयं को मिटाने की कोशिश करें तो इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा।
ऐसे ही कई शोकसभाओं में गरुड़ पुराण का पाठ किया जाता है। मैं तो कहता हूं कि गरुड़ पुराण में वरणित नरकों का कोई अस्तित्व है और वाकई ऐसा कुछ होता है तो इस पवित्र पुस्तक का पाठ किसी के मरने के बाद नहीं बल्कि आदमी के जीते जी हनुमान चालीसा, सुंदरकांड और रामचरितमानस की तरह प्रतिदिन किया जाना चाहिए ताकि आदमी अपने नित्यप्रति अपने कर्तव्य-अकर्तव्य करमों का ध्यान रखते हुए स्वयं को गलत राह से बचा सके।
कुछ भी हो, किसी भी स्थिति में हमें ऐसा कोई प्रयास नहीं करना चाहिए, जिससे जाने-अनजाने किसी का दिल दुखे, .....ऐसी विशेष परिस्थितियों में तो कतई नहीं।

5 comments:

Udan Tashtari said...

सही कह रहे हैं.

Abhishek Ojha said...

गरुण पुराण वाली बात तो बिल्कुल सही कही आपने... और मरने के बाद भी अगर पढ़ते हैं तो वहाँ उपस्थित लोग सुनते कहाँ हैं :-)

DUSHYANT said...

sawaal ye hai bhai ki ham vyavhaar men kav scintific honge,aaspaas kitne hee log mil jayenge jo garud puraan padhe binaa vaisaa jeevan jee rahe hain par kyaa parinaamswaroop unkaa jeevan waisaa hai jiasaa garud puraan kahtaa hai

Unknown said...

garud puuran main bhai apna vishvaas nahin hai. marne wale ke priyajan ko kaha jaye ki uski aatma ko aise ya waise pratadit kiya jayega, to kya priyajan ka dil nahin dukhega. aisa hai to ye bhi to dil dukhane wali baat hi hui na.

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

आपने दोनों बातें सही कही हैं प्रियवर. अगर किसी की भावनाएं आहत न हों (और होती हो तो हो जाएं) तो कहना चाहूंगा कि गरुड पुराण शुद्ध बकवास है. यह मार्केटिंग का फूहडतम रूप है. किसकी, यह मत पूछिए. मेरे घर में जब ऐसा अवसर आया, कम से कम मैं तो इसे सहन नहीं कर पाया.
दूसरी बात हमारे शिष्ट आचरण से जुडी है. यही कहा जा सकता है कि हे प्रभु इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते...
लोगों का मूल्यांकन करने के अवसर अलग होते हैं और उन्हें याद करने के अलग - जो लोग इतना भी नहीं समझते उनके बारे में क्या कहा जाए?
एक और बात, हममें इतनी परिपक्वता कब आएगी कि हम खान-पान की बतों गैर ज़रूरी चर्चा करना बन्द करेंगे?
सही बात कहने के लिए बधाई!