Saturday, April 12, 2008

मुश्किलों में है वतन...

आज शाम ऑफिस आते समय एक ऑटो में शायद एफएम पर यह गाना बज रहा था---मुश्किलों में है वतन। कभी इस गीत को सुनकर देशभक्ति का जज्बा लोगों के दिल में जगता रहा हो, लेकिन आज इसे सुनकर मेरे मन में विचारों का झंझावात उठा, उसे शेयर करना चाहता हूं।
आज हमारे देश में आम आदमी जिन हालात के बीच गुजर बसर कर रहा है, यह पंक्ति उसका सटीक बयान करता है।
आज ही अखबारों में खबर छपी कि मुद्रास्फीति बढ़कर 7.41 प्रतिशत तक पहुंच गई है। फल-सब्जियों, आटा-दाल, चीनी-मसाले, खाद्य तेल के दाम नित नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं और आम लोगों की पहुंच से दूर होते जा रहे हैं। सरिया-सीमेंट की कीमत बढ़ने से घर बनाने की योजना खटाई में पड़ गई है। मीडिया का आकलन है कि मुद्रा स्फीति साढ़े तीन साल में सबसे अधिक स्तर को छू गई।
आज केंद्र में जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उनके ऊल-जलूल बयान जले पर नमक छिड़कने का काम करते हैं। कभी कोई मंत्री कहता है कि दक्षिण भारत के लोगों ने रोटी खाना शुरू कर दिया है, इसलिए गेहूं की कीमत बढ़ गई है। अब उन्हें कौन बताए कि उत्तर भारत के बड़े शहरों में साउथ इंडियन भोजन परोसने वाली होटलों पर कितनी भीड़ हुआ करती है, तो क्या चावल की कीमत इसलिए बढ़ गई कि भात के अलावा डोसा व अन्य चीजों में इसका उपयोग होने लगा है। इतना ही नहीं, कई कांग्रेसी रहनुमा तो निलॅज्जता की सारी हदें पार करते हुए कह देते हैं कि हमारे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है।
मैं न तो बीजेपी का समथॅक हूं न ही एनडीए का सिपहसालार, और न ही कांग्रेस या यूपीए का विरोधी, लेकिन वाजपेयी सरकार और मनमोहन सरकार के दौरान आम उपभोग की वस्तुओं की कीमतों में जो उछाल आया है, उससे कैसे आंखें मूंद लूं। आटे-दाल की महंगाई से आए दिन मियां-बीबी में होती खिच-खिच घर-घर की कहानी बन गई है। ऐसे में ईश्वर से यही प्राथॅना है कि इन राजनेताओं को तो अपना पेट भरने से ही फुरसत नहीं है, आप तो हमारी सुध लो।

2 comments:

राजीव जैन said...

सच्‍चाई यही है
महंगाई बेलगाम है और नेताओं को यह तक समझ नहीं आ रहा कि जनता को बेवकूफ बनाने के लिए क्‍या कहना है।

Anonymous said...

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