Tuesday, January 15, 2008

पतंगबाजी की शोर में इनकी कौन सुने


हर शहर की अपनी संस्कृति होती है, सो गुलाबी नगर की भी है। इस शहर को छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। यहां के लोग काफी धमॅप्राण हैं, इसमें भी कोई शक नहीं है। यहां के मंदिरों में विशिष्ट अवसरों के अलावा आम दिनों में भी श्रद्धालुओं की भीड़ देखकर इसका अहसास होता है। अल्बटॅ हॉल, जलेब चौक, हवामहल और दूसरे कई स्थानों पर तड़के सुबह से सूरज ढलने तक परिंदों के लिए चुग्गा डाला जाता है। इन विशेष स्थानों के पास मक्का-बाजरा आदि अनाज बेचने वाले दजॅनों लोग आपको मिल जाएंगे और कबूतरों के झुंड के झुंड के साथ हजारों-हजार दूसरे परिंदे भी जमीं पर उतरते हैं और अपनी भूख मिटाते हैं। इतना ही नहीं, परिंदों की जूठन में बचे अनाज से गायों की भी जठराग्नि बुझती है। इतना सब कहने का मेरा यह अभिप्राय है कि इस धमॅप्राण नगरी की संस्कृति का एक दूसरा और काफी हद तक नकारात्मक पहलू भी है।
यहां की संस्कृति में पतंगबाजी भी शुमार हो चुकी है। मकर संक्रांति पर पतंगबाजी का जो जुनून जयपुर में देखा जाता है, बमुश्किल किसी और शहर में दिखे। अब पतंग उड़ाने भर से तो मन नहीं मानेगा सो दूसरों की पतंग काटी भी जाएगी। और काटी जाएगी तो इसके लिए तलवार जैसी धार भी चाहिए होती है। ...तो मुरादाबाद और बरेली के नामी कारीगर नई-नई तकनीकें अपनाकर ऐसा मांझा बनाते हैं कि उसकी धार के क्या कहने।
पतंगबाजी के शौकीन मकर संक्रांति से चार-पांच दिन पहले से ही मोरचा संभाल लेते हैं। 13 जनवरी को रविवार होने के कारण लोगों ने जमकर अभ्यास किया पेंच लड़ाने का। इस बार पंडितों ने भी मेहरबानी की और कहा कि 14 जनवरी को पुण्यकाल नहीं है, सो मकर संक्रांति 15 जनवरी को मनाई जाएगी। सालों-साल से 14 जनवरी को ही मकर संक्रांति मनाई जाती रही है, सो सरकार ने 14 जनवरी का ही अवकाश घोषित किया था। कैलेंडर तो पहले ही छप चुके थे सो सरकारी के साथ निजी संस्थानों और स्कूलों में भी 14 जनवरी को ही छुट्टी रही। क्या किशोर क्या युवा, क्या युवती क्या महिला, यहां तक कि बच्चों और कुछ बूढ़ों ने भी 14 जनवरी को पतंगबाजी में जमकर हाथ आजमाया। राजस्थान पयॅटन विभाग ने चौगान स्टेडियम में 14 -15 जनवरी को पतंग उत्सव का आयोजन किया, जिसमें पतंगों की प्रदशॅनी लगाई गई और पतंगबाजी के उस्तादों ने अपने करतब दिखाए। देशी-विदेशी सैलानियों ने भी इसका भरपूर आनंद लिया। धरम सज्जन ट्रस्ट की ओर से जवाहर कला केंद्र में आयोजित कायॅक्रम में शबाना आजमी के साथ जावेद अख्तर ने अपने प्रतिनिधि शेर सुनाए और फिर अंत में इरफान के साथ सबने पतंगबाजी का भी मजा लिया।
अब आई 15 जनवरी, माता-पिता शुभ मुहूतॅ में दान-पुण्य करें तो आज्ञाकारी संतान स्कूल-कॉलेज का रुख कैसे करे। श्रीमतीजी की कृपादृष्टि चाहिए थी सो साहब ने भी दफ्तर से बंक मारना ही उचित समझा और सभी एक बार फिर छत पर जम गए पतंग उड़ाने और --वो काटा, वो काटा--का शोर मचाने के लिए।
लोगों के इस जोशो-जुनून का दुष्परिणाम बेचारे बेजुबान परिंदों को उठाना पड़ा। मांझे से कटकर सैकड़ों परिंदे कटे पत्ते की तरह जमीन पर गिर पड़े। कुछ तो गिरते ही कुत्ते-बिल्लियों का निवाला बन गए, जिनकी किस्मत अच्छी थी वे एनजीओ की ओर से बनाए गए बडॅ रेस्क्यू सेंटर पर पहुंचाए गए, जहां उनका उपचार हुआ और वे अब उस सुनहरे पल का इंतजार कर रहे हैं जब दुबारा आसमान में उड़ान भर पाएं। मांझे की डोरी जो पेड़ों व झाड़ियों में अटक गई है, वह आने वाले दिनों में बंदरों को भी जख्मी करती रहेगी। आदमी की भूल का खमियाजा आदमी को भी भुगतना ही पड़ता है, सो कई मासूम बच्चे और वयस्क स्त्री-पुरुष भी मांझे से घाव खाकर अस्पताल पहुंचे। इनमें से कइयों के चेहरों पर मांझे की -कट-से हुआ घाव उन्हें आजीवन इस ददॅ की याद दिलाता रहेगा।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपनी पतंग को आसमान में ऊंचा...और ऊंचा.....और भी ऊंचा...सबसे अधिक ऊंचा देखकर ही संतोष कर लें। ऐसा करने से महज धागे से ही पतंग उड़ाई जा सकेगी और मांझे से बंदरों, परिंदों और सबसे बढ़कर हमारे दूसरे भाई-बंधुओं को कोई पीड़ा नहीं भुगतनी पड़ेगी। अब हर किसी बात के लिए सरकार तो अध्यादेश लाने से रही, कानून बनाने से रही, क्या हम स्वस्फूतॅ होकर ऐसा कोई कानून नहीं बना सकते कि अगली बार से हम मांझे वाली डोर से पतंग नहीं उड़ाएंगे। यदि ऐसा कर सकें तभी गुलाबी नगरी को धमॅप्राण लोगों की नगरी और छोटी काशी कहना साथॅक हो सकेगा।

2 comments:

suresh said...

Dear sir

Very good.

Regards

Suresh Pandit

ghughutibasuti said...

आपकी बात बहुत सही है । हमारे आनन्द की कीमत किसी और को चुकानी पड़े यह तो ठीक नहीं है । गुजरात में भी यही समस्या होती है ।
घुघूती बासूती