Sunday, January 6, 2008

...बफॅ डालूं या सोडा


मध्यमवरगीय लोगों के लिए इस रंग बदलते जमाने में एक-एक पल जीना मुहाल सा हो गया है। आलू-गोभी-टमाटर की कीमत आसमान छूने लगती है तो वह दाल-रोटी खाने की सोचता है और तब ऐसा होता है कि दाल भी भाव बढ़ने के कारण हाइड्रोजन भरे गुब्बारे की तरह उसकी पहुंच से दूर हो जाती है। अब बेचारा क्या खाए, कैसे जिए, लेकिन जिजीविषा है कि मरने भी नहीं देती। अब किन-किन बातों पर बलि दे दें इस जीवन की। और भी कई चीजें हैं जिन पर मरा जा सकता है। मसलन मल्लिका शेरावत की अदाएं, राखी सावंत के ठुमके, हिमेश रेशमिया के गाने और न जाने क्या-क्या मौजूद है इस देश की फिजां में। फिर भी मनोरंजन मनुष्य के लिए जरूरी है। आम आदमी के लिए संतोष की स्थिति यही होती है कि एक अदद टेलीविजन खरीदकर ही बीवी-बच्चे की नजर में अपनी अहमियत बनाए रखी जा सकती है कि हमने उनके लिए कुछ तो किया। आसमान से तारे तोड़कर न लाए, उपग्रह के रास्ते आसमान को ड्राइंग रूम में तो लाया ही सकता है। हर कोई तो इंटरनेट औऱ केबल कनेक्शन ले नहीं सकता। टाटा स्काई, डिश टीवी भी हर किसी के वश की बात कहां हैं, सो ले-देकर बचता है एकमात्र दूरदशॅन, जो भारत के करोड़ों लोगों के मनोरंजन का एकमात्र आसरा है। इस पर भी ऐसे-ऐसे कायॅक्रम प्रसारित होते हैं कि उन पर हंसा जाए या खुद पर हंसा जाए कि हम इन्हें देखते ही क्यों हैं।
अभी पिछले शुक्रवार (४ जनवरी) की रात दूरदशॅन के नेशनल चैनल पर फिल्म-खोसला का घोंसला-आ रही थी। मैं पास ही आयोजित कायॅक्रम में भजनसम्राट अनूट जलोटा को लाइव सुनकर आया था। मन प्रभुभक्ति में रमा हुआ था। श्रीमती जी और बच्चा दोनों इस फिल्म को देख रहे थे, मैं भी बैठ गया। हास्य फिल्म के नाम पर इसमें क्या-क्या दिखाया गया, वह मेरी समझ और पहुंच से परे था। भजनों का सारा सुरूर जाता रहा। हद तो तब हो गई एक सीन में जब अनुपम खेर अपने जवान बेटों से दोस्ती का व्यवहार बनाकर बुढ़ापा संवारने के लिए शराब खरीदकर घर पर लाते हैं और साथ बैठकर पीने की योजना बनाते हैं। उनका एक युवा बेटा उनके साथ बैठा होता है और दूसरे की इंतजार कर रहे होते हैं दोनों। अनुपम खेर कहते हैं कि शराब में पहले बफॅ डाली जाए, उनका बेटा कहता है कि नहीं पहले सोडा डालने से टेस्ट अच्छा होगा, मेरा तजुरबा है। अब मेरे बेटेजी ने पूछा, पापा ये शराब पी रहे हैं। आपको पता है क्या कि शराब में पहले सोडा मिलाई जाए या बफॅ डाली जाए। मैं क्या करता। अपनी अनभिज्ञता जताकर और अगले संभावित सवाल से बचने की गरज से दूसरे कमरे में जाकर बीबीसी हिंदी सेवा का कायॅक्रम सुनने लगा। भगवान का शुक्र था कि बेटे को भी जल्दी ही नींद आ गई। बाद में मैंने टीवी बंद कर दिया। मेरी भी जान छूटी, न जाने इस फिल्म में आगे और कैसे-कैसे दृश्य आए होंगे। दूरदशॅन की पहुंच जितनी व्यापक है, इसके करता-धरताओं की सोच भी उतनी ही व्यापक होनी चाहिए, अन्यथा इसके करोड़ों दशॅकों की स्थिति शोचनीय हो जाएगी। भगवान दूरदशॅन के नीति नियंताओं को बुद्धि दे और इसके दशॅकों को मनोरंजन के ढेर सारे विकल्प, ईश्वर से यही प्राथॅना है।
(एक आम आदमी को अपने सपने का आशियाना बनाने में किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है और तथाकथित पूंजीपति अपने प्रभाव व पावर के बल पर उसे किस हद तक परेशान करते हैं, आधुनिक परिवेश में एक मध्यम आय वाले बाप को अपने अत्याधुनिक सोच वाले बेटों के साथ तादतम्य बिठाने में किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, इसका चित्रण करने की कोशिश की गई होगी, इसमें कोई शक नहीं है फिर भी मुझे जो शिकवा है, उसे मैं पचा नहीं पा रहा हूं, इस फिल्म और इसके अदाकारों के फैन की भावनाओं को ठेस पहुंची हो, तो माफ करेंगे। )

1 comment:

राजीव जैन said...

सच में सोचने की बात है यह तो
वैसे कम उम्र में बेटा काफी कुछ सोच लेता है
:)