Friday, January 4, 2008

हर फिल्म होती है कुछ खास, तारे ज़मीं पर भी


आमिर खान की फिल्म-तारे ज़मीं पर --के प्रचार-प्रसार के लिए लगाए गए बैनसॅ में लिखे एक जुमले ---एवरी चाइल्ड इज स्पेशल--में थोड़ा परिवतॅन कर अपनी भावनाएं आपसे शेयर कर रहा हूं। मुझे तो ऐसा लगता है कि हर फिल्म कुछ खास होती है। ऐसा नहीं होता तो जी. पी. सिप्पी की फिल्म-शोले-ने सफलता के परचम लहराए, ऐसे रिकॉडॅ बनाए जो आज तक नहीं तोड़े जा सके और उसकी रिमेक --रामगोपाल वरमा की आग--ढंग से सुलगने से पहले ही बुझ गई। अभी हाल ही में संग-संग रिलीज हुई-तारे ज़मीं पर-न केवल दशॅकों, बल्कि समीक्षकों के लिए भी आकषॅण का केंद्र बनकर प्रशंसा बटोर रही है, और -वेलकम-का किसी ने वेलकम ही नहीं किया।
कोई भी फिल्म मेकर और डायरेक्टर जब फिल्म पर काम शुरू करता है तो उसकी दिली तमन्ना यही होती है कि वह अपनी फिल्म से पुरानी सारी मान्यताएं बदलकर रख देगा, समाज में परिवतॅन की लहर छा जाएगी, फिल्म हिट होने पर सफलता की नई परिभाषा लिखी जाएगी, बच्चे-बूढे़ सबकी जुबान पर मेरी फिल्म की गीतों के ही बोल होंगे, और स्टोरी तो ऐसी होगी कि मुंशी प्रेमचंद जैसे कहानीकारों की कहानियां भी पानी भरें इसके सामने। अपनी तमन्ना को सच करने के लिए हरसंभव प्रयास भी करता है, लेकिन जब फिल्म जब स्क्रीन पर आती है और सोचा हुआ रिस्पॉन्स नहीं मिल पाता, तो राइटर-प्रोड्यूसर-डायरेक्टर की तिकड़ी माथा पीटकर रह जाती है। बेचारे अदाकारों के दुख का तो कहना ही क्या।
यहां सोचने का विषय यह है कि कोई फिल्म लोकप्रियता बटोरने में कैसे सफल हो पाती है। फिल्मों के कद्रदान और जानकार कई सारे कारण गिना सकते हैं, लेकिन अल्पबुद्धि मैं जहां तक समझता हूं, फिल्म में सटीक संदेश होना चाहिए न कि उपदेश। -तारे ज़मीं पर-पर में यह संदेश देने की सफल कोशिश की गई है कि बच्चे से किसी तरह की अपेक्षा रखने से पहले उसकी क्षमताओं का आकलन करना भी माता-पिता का पहला कतॅव्य है। फिर हमें इसका कोई हक नहीं है कि हम अपनी दमित इच्छाओं, सपनों और दुगॅम मंजिल को पाने की जिम्मेदारी बच्चों पर डाल दें। हर माता-पिता या यूं कहें कि पालक को बाल मनोविज्ञान की जानकारी हो न हो, समझ तो होनी ही चाहिए।
इस फिल्म में जब स्कूल का प्रिंसिपल ड्राइंग कॉम्पीटिशन के दौरान आटॅ टीचर आमिर खान से कहता है कि आपने मुझे मेरे बचपन में लौटा दिया, आटॅ टीचर को उसकी मेहनत का पूरा-पूरा सिला मानो मिल जाता है। आटॅ टीचर की ईशान अवस्थी की कमजोरियों के पीछे छिपे कारणों को ढूंढ निकालना, उन्हें दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहना और अंततः उस फिसड्डी माने जाने वाले बच्चे को स्टार बना देना--फिल्म को सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचाता है। माउथ टू माउथ पब्लिशिटी जैसी इस फिल्म को मिल रही है, शायद ही किसी फिल्म को मिल पाती है। मैं तो इतना ही कहूंगा कि हर पालक-अभिभावक को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। और अब इसे देखना आसान भी हो गया है। दिल्ली और मुम्बई की सरकारों ने इसे टैक्स फ्री कर दिया है। बाकी महानगरों-राज्यों के रहनुमाओं को भी जब इस फिल्म को देखने की फुरसत मिलेगी, शायद वे भी इसे टैक्स फ्री करने की घोषणा कर दें। आमिर खान ने जो किया, उसके लिए वे प्रशंसा के हकदार हैं, विशेष रूप से उस बच्चे को हृदय से बधाई जिसने ईशान अवस्थी की भूमिका में जान डाल दी।

2 comments:

राजीव जैन said...

badai

sach kaha aapna

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

मंगलम जी,
लग रहा है अब तो मुझे भी फिल्म देखनी पड़ेगी , पर लग रहा है कि बेहद खूबसूरत फिल्म है और बच्चों की साइकोलाजी को समझ कर बनाई गई है।