कल शाम एक मित्र घर पर आए। मेरे आठ बरस के बच्चे ने दरवाजा खोला और अंदर के कमरे में चला गया। वहां डीवीडी पर उसकी मनपसंद फिल्म चल रही थी। हम दोनों मित्र विभिन्न मुद्दों पर गपियाने लगे। करीब १५-२० मिनट बाद बच्चा दुबारा आया और मित्र के पैर छुए। देर से पैर छूने पर मित्र सहसा बोल उठे-धन्यवाद बेटा, तुम्हें पैर छूने की याद आ तो गई।
इस पर मेरे दिमाग में जो हलचल हुई, उसे आप भी महसूस करें। आजकल हम जिस युग में जी रहे हैं, उसमें बहुत ही कम बेटों को मां-बाप के साथ रहने का अवसर मिल पाता है। जीवन में आजीविका के अवसर तलाशते-तलाशते आज का युवक अक्सर मां-बाप की सेवा का सुनहरा अवसर गंवा बैठता है। कुछ मां-बाप भी गांव छोड़ शहर में पराश्रित सा जीवन बिताने से मना कर देते हैं। ...और शहरों में जहां दोनों ही सुयोग प्राप्त होते हैं, वहां जेनरेशन गैप या फिर दूसरे कारणों से सुयोग्य सुस्थापित बेटे अपने बूढ़े मां-बाप को वृद्धाश्रम में छोडकर उनसे पीछा छुड़ा लेते हैं। फिर बेटे के हाथ से एक लोटा पानी के लिए भी वे भले ही तरस जाएं।
हां, भारतीय समाज में पौराणिक व्यवस्था ऐसी है कि जिस माता-पिता को बेटा जिंदगी में पानी नहीं पिला पाता, उनके मरने के बाद वह आश्विन महीने कृष्ण पक्ष (कनागत) में तपॅण कर उन्हें तृप्त तथा स्वयं को पितर ऋण से उऋण होने का उपक्रम जरूर कर लेता है। फिर मृत्युभोज के नाम पर समाज में अपना स्टैंडडॅ बनाए रखने के लिए ब्राह्मणभोज से लेकर पितृभोज तक आयोजित करने में भी गवॅ महसूस किया जाता है।
ऐसे में मैं तो यही कहूंगा कि परिस्थितियों पर तो अपना वश नहीं होता, परवश होने के कारण कई बार चाहकर भी मातृ-पितृभक्ति की चाह पूरी नहीं हो पाती, लेकिन फिर भी हमें यह प्रयास तो अवश्य करना चाहिए कि माता-पिता के मनोनुनूकूल व्यवहार कर हम उन्हें जीने का अच्छा वातावरण उपलब्ध कराएं, मृत्यु के बाद की तृप्ति को किसने देखा है। ....और पितृऋण से मुक्त होना तो मुमकिन ही नहीं है।
कितने कमरे!
6 months ago
3 comments:
जायज बात है।
सही कहा आपने
वैसे पैर छू दिए
अपन तो इसी में खुश हैं।
वर्ना आज तक तो मैं ही छूता आ रहा हूं
एक तो मिला जो हमारे छू रहा है
Dear all
Sahi baat leekha aapne.
Suresh Pandit, Jaipur
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