कवि सम्मेलन चूंकि मरुधरा राजस्थान की राजधानी में हो रहा था, सो वीरभूमि राजस्थान की शौयॅगाथा और राजस्धानी भाषा को महत्व मिलना स्वाभाविक था। राजस्थान की आंचलिक ढूंढाड़ी भाषा के कवि दुरगादान गौड़ ने बड़े ही अनूठे अंदाज में गीत सुनाए---
मीठा गीत जवानी मीठी, मीठा ढोला मारू
हाय म्हारी चांद कुंवर तने हिवड़ा बीच उतारूं
मीठा सपना मीठी यादां मीठी बात वचन अरु वादा
जग सूं थाणी हांसी पी ग्या म्हां भी हो गया मीठा ज्यादा
म्हारी भी तकदीर संवर जा आ जा थारी केश संवारूं।
लोकभाषा का सहज प्रवाह इतनी रवानी में था कि मैं खो सा गया उसमें.... और सुध-बुध खोने के कारण उन पंक्तियों को नोट नहीं कर पाया।
कोटा से ही आए डॉ. अतुल कनक ने लड़कियों के बारे में समाज में व्याप्त कुमानसिकता को दूर करने का बहुत ही अच्छा जतन किया--
सुबह से स्निग्धता, रात से गहनता, हवा से तरलता
और खुशबू से विरलता लेकर
नदी से एक बूंद उठाई होगी
इस तरह परमात्मा ने लड़की बनाई होगी।
श्रद्धा के क्रम की ये तेजस्वी शृंखला
गंगा की अस्मिता है यमुना की धारा है
लड़की कोई माल नहीं, परमात्मा का कमाल है
प्रेम की पराकाष्ठा है, प्यार का तपोवन है
लड़की तो दुरगा की दुदॅम्य शक्ति है
ये लड़कियां तो सृष्टि का सोलहवां शृंगार है.....
उन्होंने ---पिता---शीषॅक कविता के माध्यम से पिता की महिमा का गुणगान किया। डॉ. कनक के काव्यपाठ की गति कुछ तेज होने के कारण मैं श्रवण और लेखन में संतुलन नहीं बना पाया, इसलिए ये कविताएं अधूरी रह गई हैं, प्रयास करूंगा कि निकट भविष्य में उनकी पूरी कविता से आपके सम्मुख रखूं।
........कवि सम्मेलन अब अपने चरम पर था, श्रोताओं में सार ही सार शेष रह गया था, नींद का झोंका, रात की गहराई या फिर कहूं कि जाड़े के असर से सारा थोथा उड़ चुका था। चित्तौड़गढ़ से आए वयोवृद्ध कवि पं. नरेंद्र मिश्र सबसे अंत में आए और आते ही टिप्पणी की कि वरिष्ठता के दुरभाग्य तक आते-आते मेरे हिस्से में गिनती के ही श्रोता बचे हैं। उन्होंने आयोजकों के सामने अगले वषॅ से यह कवि सम्मेलन शहर के मध्य में कराने की बात कही, तो श्रोताओं ने भी खड़े होकर इसका समथॅन किया। इस पर कितना अमल हो पाएगा, यह तो समय ही बताएगा। मेवाड़ की धरती से आए पं. मिश्र ने
---राणा प्रताप इस भरत भूमि के मुक्ति मंत्र का गायक था.....
के माध्यम से महाराणा प्रताप की शौयॅगाथा का गुणगान किया। इसके अलावा उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से ---गोरा-बादल---की वीरता का भी बखान किया। विस्तार में ये कविताएं फिर कभी...। आजकल टेलीविजन पर हास्य शो में हो रही कविताई पर उन्होंने कुछ इस तरह प्रहार किया---
फीचर फिल्म बाद में देखो पहले विज्ञापन
डेढ़ मिनट की कविता आधे घंटे का भाषण
लंगूरों ने लूट लिया कविता का नंदन वन।
कवि सम्मेलनों में कविता कम, श्रोताओं से तालियों की चिरौरी ज्यादा करने वाले तथाकथित कवियों पर पं. मिश्र ने कुछ यूं कटाक्ष किया----
चुटकुले गजलों पर भारी हो गए
जितने बंदर थे मदारी हो गए
गिड़गिड़ाते तालियों के वास्ते
शब्द के साधक भिखारी हो गए।
वतॅमान राजनीतिक व्यवस्था और आधुनिक नेताओं पर उन्होंने कुछ इस तरह चुटकी ली----
देश ये कैसा बनाया आपने
उम्रभर पैसा बनाया आपने
गांव के जलते दीये भी बुझ गए
अजब दीपक राग गाया आपने।....
मैंने भी बहुत लंबा राग आलापा। कवि सम्मेलनों में कवियों से कविताएं सुनना मेरा भी शौक रहा है, लेकिन कई बार ऐसा होता है कि किन्हीं अपरिहायॅ कारणों से समय नहीं निकाल पाता, सो मैंने सोचा कि ऐसे जो लोग किन्हीं कारणों से---दूरी या मजबूरी--या फिर कोई और जरूरी---से इस काव्य निशा का आनंद नहीं उठा पाए, उनके सम्मुख कविताओं की यह रात ले आऊं। इसमें कुछ अशुद्धियां भी रह गई होंगी, खामियां भी रह गई होंगी, इसके लिए जिगर मुरादाबादी की दो पंक्तियां उधार लेकर क्षमा चाहता हूं---
हाय ये मजबूरियां, महरूमियां, नाकामियां
इश्क आखिर इश्क है तुम क्या करो हम क्या करें।
धन्यवाद.... शुक्रिया....गुड बाय। मिलते रहेंगे......।
कितने कमरे!
6 months ago
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