Tuesday, October 16, 2007

चिट्ठी नहीं चिट्ठा, डाक नहीं मेल

बदलते हुए जमाने के साथ युगधमॅ भी बदलता रहता है। किसी जमाने में आदमी भोजपत्र पर लिखता था, इसके दशॅन मेरी पीढ़ी के युवकों को संग्रहालयों में ही हो पाते हैं। मैंने लिखने का अभ्यास स्लेट पर शुरू किया था। उन दिनों ५० पैसे से लेकर एक रुपए तक में स्लेट में आती थी, जो जरा सी ऊंचाई से गिरते ही फूट जाया करती थी। अक्सर ऐसा होने पर पिताजी के क्रोध का शिकार भी होना पड़ता था। जब अच्छी तरह लिखना-पढ़ना आ गया तो मुझे अभ्यास पुस्तिका व पेंसिल उपलब्ध कराई गई थी। इसके बाद सरकंडे की कलम को स्याही भरी दवात में डुबोकर लिखने का अभ्यास काफी दिन तक कराया गया। फिर गुरुजनों से जब नींब वाली कलम से लिखने की अनुमति मिली तो ऐसी खुशी हुई कि लेखनी पकड़ते ही हम बहुत बड़े लेखक बन जाएंगे। यह यात्रा हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी होते-होते रिफिल वाली कलम तक पहुंची और कॉलेज के दिनों में पायलट पेन हमारे स्टैंडडॅ का प्रतीक हुआ करता था। माता-पिता द्वारा तय की शादी के बाद पत्नी को प्रेमिका बनाने के क्रम में उससे दूर रहकर जो प्रेम पत्र लिखे, उनमें रंग-बिरंगे जेल पेनों ने भी काफी सहायता की। अस्तु, मिलेनियम वषॅ २००० में उत्पन्न मेरे पुत्र ने अभ्यास पुस्तिका पर ही अक्षरों का अभ्यास शुरू किया। उसे कभी जब स्लेट की लिखाई के अनुभव बताता हूं तो यह उसके लिए किसी आश्चयॅ से कम नहीं होता। स्लेट से अभ्यास पुस्तिका तक होती हुई यह अक्षर यात्रा अब कम्प्यूटर लिटरेसी तक पहुंच गई है। अब तो केंद्र सरकार ने झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्तियों में भी कम्प्यूटर लिटरेसी शुरू करने का अभियान छेड़ दिया है। वह दिन दूर नहीं जब बच्चे सीधे कम्प्यूटर पर ही अक्षरों का ज्ञान लेंगे और की-बोडॅ पर इसका अभ्यास कर इसी में ही निष्णात कहलाएंगे। अब आते हैं आधुनिक जीवन व्यवहार पर। आज के जमाने में औसत बौद्धिकजन कम्प्यूटर लिटरेसी के बिना खुद को असहाय सा महसूस करते हैं। मैंने स्वयं कई ऐसे लोगों के लिए देखा है जिन्होंने ६० वषॅ की उम्र बीतने के बाद कम्प्यूटर पर टाइपिंग सीखी और आज अभ्यास के बल पर अच्छी टाइपिंग स्पीड के धनी हैं। वह दूर नहीं जब कम्प्यूटर लिटरेट और कम्प्यूटर इलिटरेट के भी अलग-अलग वगॅ होंगे। अब मैं आज के अपने विषय पर आता हूं। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर विश्व की अन्य महत्वपूणॅ घटनाओं पर महापुरुषों के बीच जो पत्राचार हुआ करता है, उसके निहिताथॅ व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक व वैश्विक भी हुआ करते थे। आज पत्र लिखने की हमारी वह आदत पक्षाघात का शिकार हो गई है। लेकिन मानव मन कभी मानता क्या है। किसी ने क्या खूब कहा है------आदत जो लगी बहुत दिन से वह दूर भला कब होती हैहै धरी चुनौटी पाकिट में पतलून के नीचे धोती हैमेरी नजर में अपनी इसी आदत को बनाए रखने के लिए ही ब्लॉग की शुरुआत की गई है। चिट्ठी का स्थान चिट्ठा (ब्लॉग) ने ले लिया है। व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक मुद्दों पर सैकड़ों लोग अपने विचारों के आदान-प्रदान में दिन-रात लगे हैं।अब एक और पहलू, आदमी पहले डाकिये का इंतजार करता था, कुछ ऐसे लोग जिनके ज्यादा पत्र आते थे, दरवाजे पर पत्र पेटिका लगवाते थे और दोपहर बाद नियमित रूप से इसे खोलकर देखते थे कि किसी का संदेश आया है या नहीं। आज के बदले हुए जमाने में डाक (मेल) का स्थान अब ई-मेल ने ले लिया है और आदमी कम्प्यूटर ऑन करते ही सबसे पहले ई-मेल चेक करता है। प्रियजनों के ई-मेल पाकर मन मयूर उसी तरह झूम उठता है जो कभी प्यार में पगे पत्र पाकर खिल उठता था।

8 comments:

राजीव जैन said...

हालांकि मैंने भी स्‍लेट पर ही लिखना शुरू किया, उसके बाद निब वाले पैन फिर रिफिल और अब जेल पेन तक का सफर तय किया। स्‍कूल कॉलेज में सिर्फ पढाई तक सीमित रखा।
इत्‍तेफाक से पत्रकारिता में आया तो सीधे न्‍यूज लिखने बैठा दिया वो भी एजेंसी की खबरों से सीधे हिंदी में तो स‍बकुछ कम्‍प्‍यूटर पर यानी एक तरफ एजेंसी ऑनलाइन और दूसरी तरफ वर्ड में न्‍यूज कम्‍पोजिशन। करीब छह साल हुए ऐसे लिखते हुए।
इस बीच दो साल की एक पीजी डिग्री की तो मुझे झटका लगा कि कम्‍प्‍यूटर ने तो लगभग लिखने वाली आदत ही बिगाड दी है। बडी मुश्किल से कुछ लिखा और पास होकर इज्‍ज्‍त बचा पाया।
मुझे लगता है कि अब तो कम्‍प्‍यूटर न हो तो मैं तो शायद ही चार लाइन लिख पाऊं
सो
जय हो कम्‍प्‍यूटरजी
जिन्‍होंने पेन का उपयोग ऑफिस में साइन करने और पेज पर चार करेक्‍शन करने तक सीमित कर दिया।

Udan Tashtari said...

ऐसा लगा जैसे आप मेरी कथा लिख रहे हैं. बहुत आराम से जोड़ पाया. बहुत खूब.

काकेश said...

वाह यह कथा तो हमारी भी है. हाँ हमने तख्ती भी इस्तेमाल की है बच्पन में.

http://kakesh.com

अनिल रघुराज said...

सेठे की कलम, स्लेट ...पूरा बचपन याद दिला दिया आपने। लेकिन ज़माना ऐसे ही बदलता है और हमारे दौर में तो बहुत तेज़ी से बदल रहा है।

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

slate बरते से लेकर जेल पेन और कंप्यूटर का सफर तो हमने भी तय किया है लेकिन आने वाली पीढ़ी लगता नही की कभी कलम और बरते का इस्तेमाल कर पाएगी.

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

वेलकम बैक मंगलम जी , एक अर्से बाद आपको ब्लॉग पर देखा अच्छा लगा, लिखते रहिएगा.

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...
This comment has been removed by the author.
ePandit said...

हमारी भी बिल्कुल यही कहानी है। तख्ती, स्लेट से लेकर पैन के सफर तक। बाकी अब कम्प्यूटर पर लिखने की ऐसी आदत पढ़ी है कि कागज पर एक पेज लिखना दूभर लगता है।