Sunday, October 28, 2007

गीत चांदनी में डुबकी लगाएं


सही मायने में पूनम (पूरणिमा) का उत्सव तो हर महीने समंदर ही मनाता है, जब उसकी लहरें चंद्रमा की किरणों को अपने आगोश में लेने के लिए मचल उठती हैं, जिसे ज्वारभाटा के नाम से जाना जाता है। प्रकृति का सतत अनुचर मनुष्य की प्रकृति भी इससे कुछ भिन्न नहीं है। वह भी पूनम पर कई तरह के आयोजन करता ही है। लेकिन अन्य पूनमों की तुलना में शरद की पूनम का कुछ विशेष महत्व है।
इस उपलक्ष में गुलाबीनगर में पिछले करीब ३७ बरसों से तरुण समाज ---गीत चांदनी--- नाम से कवि सम्मेलन आयोजित करता है। इसमें कविगण गीतों से चांद, चांदनी और फिर कामिनी, प्रकृति सब पर अपनी कल्पनाओं के तीर चलाते हैं। कवि भी तो वही कहते हैं, जो आमजन के मन में उमड़ता-घुमड़ता रहता है, लेकिन भावनाओं को शब्दों का अम्बर पहनाना तो हर किसी के वश में नहीं हो न।
इस बार भी यह आयोजन हुआ, जिसमें देहरादून के बुद्धिनाथ मिश्र, आगरा के शिवसागर मिश्र, हरिद्वार के रमेश रमन, इलाहाबाद के यश मालवीय, दिल्ली की मुमताज नसीम, रायबरेली की श्यामासिंह सबा, अजमेर के गोपाल गगॅ और कोटा के मुरलीधर गौड ने अपनी रचनाओं की चांदनी बिखेरी। संचालन जयपुर के सुरेंद्र दुबे का रहा। यहां भी खलने वाली बात यह रही कि मंच पर बैठे कवियों और सामने बैठे श्रोताओं का काव्य की रसधार के बीच भी मोबाइल से मोहभंग नहीं हुआ, और रिंगटोन तथा बातचीत व्यवधान बनते रहे।
आइए, कुछ रचनाओं का मिल-जुलकर रसास्वादन करें----
हर दीप को पूजा मिले हर स्रोत को नदिया मिले
भगवान मेरे देश में हर फूल को प्रतिमा मिले
पानी, हवा और धूप से संपन्न हो वन संपदा
तरुवर से लिपटी हो लता आए न कोई विपदा
संपन्न हर घर बार हो कोई नहीं लाचार हो
सत्यम् शिवम् और सुंदरम् की कल्पना साकार हो
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प्यार का गीत जमाने को सुनाया जाए, दुश्मनों को भी गले से लगाया जाए
कब कहती हूं इन्हें ताज अता हो लेकिन हक गरीबों को भी जीने का दिलाया जाए
माथे पर मत बल लाया कर इन होठों को फैलाया कर
रोज सवेरे के सूरज से फूल लिया कर फूल दिया कर
आते-जाते देख लिया कर अपनों पर कुछ ध्यान दिया कर
कभी कभी तो दूरभाष पर हाल हमारा पूछ लिया कर
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कई साल बाद मिले हो तुम कहां खो गए थे जवाब दो
मेरे आंसुओं को न पोंछों तुम मेरे आंसुओं का जवाब दो
किसी रोज तुम मेरी खैरियत कभी फोन करके ही पूछ लो
ये तो मैंने तुम्हें कहा नहीं कि मेरे खतों का जवाब दो
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आप खुशकिस्मती से जो इंसान हैं, रस्मे इंसानियत भी निभा दीजिए
आप आगे हैं आगे ही रहिए मगर जो हैं पीछे उन्हें रास्ता दीजिए
हाठ उट्ठे तुम्हारे खुदा के लिए लोग समझें कि उट्ठे दुआ के लिए
आप रूठे हैं तो मुझसे रूठे रहें, कब मैं कहती हूं मुझको दुआ दीजिए
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गम को रुसवा न कीजे सरे अंजुमन, सिफॅ तनहाई में आंख नम कीजिए
मिट न जाएं कभी यार के नक्श-ए-पा, इनसे हटकर ही पेशानी खम कीजिए
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रात अपनी गरीब लगती है, चांदनी गरीब लगती है
आप जब दूर-दूर होते हैं, जिंदगी बदनसीब लगती है
झील में जैसे इक लहर आए देखता हूं कि आंख भर आए
हूबहू आप जैसी इक मूरत चांदनी रात में नजर आए
और अंत में मेरी ओर से क्षमायाचना किसी कवि की इन पंक्तियों से...
इस दुनिया में अपना क्या है, सब कुछ लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार

2 comments:

Ashish Maharishi said...

jaipur ke samachar ke liye shukrya

Udan Tashtari said...

आभार. कवि सम्मेलन की इस विस्तृत रपट के लिये. अच्छा लगा पढ़कर.