महज घोषणाएं ही नहीं, उन्हें पूरा करने की इच्छाशक्ति भी हो
अभी चार-पांच दिन पहले एक मित्र ने बहुत आग्रह किया घर आने के लिए। महीनों से उन्हें गोली दे रहा था, मगर इस बार उन्होंने जिस कारण से बुलाया था, कि नकारना मुश्किल था। मित्र के वृद्ध माता-पिता सुदूर बिहार के किसी गांव से गुलाबीनगर आए हुए थे और उनसे आशीष लेने का सुअवसर मैं भी नहीं छोड़ना चाहता था। तो साहब अपने साप्ताहिक अवकाश की शाम को श्रीमतीजी और बच्चे को लेकर उनकी सेवा में पहुंच गया। मेरा बच्चा मित्र के बच्चों के साथ खेलने के लिए ऐसे भागा जैसे जेल से छूट गया हो, श्रीमतीजी मित्र की माताजी और पत्नी के साथ शायद अपने ददॅ बांटने लगी और बचा मैं तो मित्र से कम, उनके पिताजी से मुखातिब होकर उनसे बातें करने में मशगूल हो गया।
दरअसल पीढ़ियों में अंतराल को महसूस करने की मेरी सहज पिपासा कभी शांत नहीं हो पाती। पिताश्री का कहना था कि अब गांव में भी पहले से हालात नहीं रहे। भौतिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर तीव्रतर बदलाव हो गए हैं। बांस और (खर) फूस की कोई कद्र नहीं है, इनसे छप्पर बनाने वाले कारीगर बेरोजगार हो रहे हैं। हां, ईंट-गाड़े के कंक्रीटों के जंगल गांवों में भी उग आए हैं। भित्ति के घर तो अब दिखते ही नहीं। नए बनते नहीं और पुराने जो थे, उन्हें बाढ़ का पानी बहा ले गए। उन्होंने बड़े ही व्यंग्यपूणॅ लहजे में कहा कि भैंस चराता किशोर भी साथ में मोबाइल लेकर चलता है। मोबाइल की उसके लिए क्या उपयोगिता या उपादेयता है,यह सवाल उनके लिए भी अनसुलझा था, मैं भला क्या जवाब दे पाता। गुलाबीनगर में व्याप्त महंगाई पर बात छिड़ी तो उनका कहना था कि गांव में भी आटा 15-16 रुपए किलो के हिसाब से मिलता है। सामान्य चावल के दाम की शुरुआत ही 18-20 रुपए किलो से होती है। सब्जियों के भाव भी यहां से कुछ कम नहीं हैं। इसके बाद जब मैंने उनसे गांव के और भी हालात के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि गांवों में रोजगार नहीं होने के कारण बच्चे किशोर होने से पहले ही परिवार का बोझ उठाने के लिए अपने बड़े भाई या पिता या फिर किसी रिश्तेदार की अंगुली पकड़कर शहरों की राह पकड़ लेते हैं। (फिर बड़े शहरों में राज ठाकरे और बाल ठाकरे जैसों के बयानों के बाद उनकी क्या दुःस्थिति होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। )
गांव की इस प्रगति के बावत पूछे जाने पर उन्होंने संतोष जताया कि हालात अवश्य ही सुधरे हैं। पुराने दिनों की याद ताजी करते हुए उन्होंने कहा कि अब गांव में भूले से भी कोई गूलर के फलों से अपनी भूख नहीं मिटाता। महुआ के रस से बनने वाले देसी दारू के बारे में आप सबने सुना होगा, लेकिन सूखे हुए महुए की खीर और लट्टा से गांवों में गरीब तबके के लोग कभी अपनी भूख भी मिटाया करते थे, लेकिन अब तो बीपीएल या उससे भी आगे अन्त्य स्तर पर रहने वाला भी मड़ुवा-सामा-कादो ही क्या, मकई की रोटी भी खाना पसंद नहीं करता। (यह बात दीगर है कि फाइव स्टार होटलों और बड़ी-बड़ी पारटियों में आजकल मक्के की रोटी अमीरों की पहली पसंद हुआ करती है )। कपड़े-लत्ते का स्तर भी उसी तुलना में सुधरा है, इसमें कोई शक नहीं है।
इतना सब सुनने के बाद मैं यह सोचने को विवश हो गया कि आदमी भले जिस भी स्थिति में गुजर-बसर कर रहा हो, अपनी बेहतरी के लिए प्रयासरत रहता ही है। यदि हमारे राजनेताओं में भी दृढ़ इच्छाशक्ति होती तो गांवों का ही क्या, पूरे देश का नजारा आज कुछ और होता। आजादी के 60 साल बाद भी हमें आज जो एपीएल-बीपीएल की रेखा खींचनी पड़ रही है और अन्त्योदय के बारे में इतनी मशक्कत करनी पड़ती है, वैसा कुछ नहीं होता। जनता तो अपने स्तर पर पसीने बहाते रही, लेकिन जनारदन ( सत्तासीन राजनेताओं) ने उनकी बेहतरी के लिए उस शिद्दत से प्रयास नहीं किए। आम बजट में आज तक जो सब्जबाग दिखाए गए, यदि उन्हें हकीकत में तब्दील करने का जीवट होता, तो कुछ भी मुश्किल नहीं था। समय तो अब भी नहीं बीता है, 29 फरवरी को केन्द्रीय वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम बजट रखने वाले हैं, चूंकि यह उनकी सरकार का अंतिम साल है, इसलिए सभी को काफी उम्मीदें हैं, आशा है, वे लॉलीपॉप नहीं देंगे, बल्कि देश को विकास के राह पर अग्रसर करने की सच्ची कोशिश अवश्य ही करेंगे।
राजनेता से प्रबंधन गुरु बने करिश्माई नेतृत्व के धनी बड़बोले रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने लगातार पांचवीं बार किराया नहीं बढ़ाकर अपने नाम रिकॉडॅ बनवा लिया, लेकिन चिदम्बरम के लिए शायद राह इतना आसान नहीं होगा। फिर भी सोचने में क्या जाता है और हम सोचे ही क्यों, ईश्वर से प्राथॅना करें कि वह चिदम्बरम के हृदय में सच्चिदानंद का वास करे जो जनारदन बनकर जनता के ददॅ को दूर करने को तत्पर दिखें।
कितने कमरे!
6 months ago
2 comments:
चुनावी बजट और बिना लीपा पोती के?? आपके साथ बस मंगलकामना कर सकता हूँ यह जानते हुए भी कि ऐसा कुछ होगा नहीं.
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