सपा नेता अबू आजमी और मनसे प्रमुख राज ठाकरे के बीच शुरू हुए विवाद की चिनगारी अब लपटों की शक्ल अख्तियार कर चुकी है। शुक्रवार को बिहार विधानसभा में बड़बोले लालू यादव की पारटी राजद के विधायकों के साथ विपक्ष ने राज्यपाल आर. एस. गवई का जमकर विरोध किया और राज्यपाल वापस जाओ के नारे लगाने लगे। गवई का यह दोष है कि वे मराठी हैं। नारे लगा रहे विधायकों की शिकायत थी कि राज्यपाल ने अभिभाषण में मुंबई और महाराष्ट्र में हुए बिहारियों और उत्तर भारतीयों पर हमले की चरचा क्यों नहीं की। अब इन बददिमाग बुद्धिशून्य विधायकों को कौन बताए कि अभिभाषण राज्यपाल खुद तैयार नहीं करता, बल्कि सत्तारूढ़ दल ही तैयार करता है। अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पारटी व सहयोगी दलों ने यदि अभिभाषण में इस पचड़े को नहीं डालना चाहा तो इसमें बुरा क्या है। क्या अभिभाषण में मुंबई में बिहारियों पर हुई ज्यादतियों की चरचा करने से उनका जख्म दूर हो जाता। क्या अभिभाषण में इसके जिक्र से बिहारियों या उत्तर भारतीयों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो जाएंगे। हां, नीतीश कुमार की मंशा यदि सही है तो वे बिहार में ही बिहारपुत्रों को रोजगार उपलब्ध कराने के मिशन पर अवश्य ही काम कर रहे होंगे। और यही उसका सही प्रतिवाद भी होगा जो कुछ मुंबई, पुणे, नासिक या और भी कहीं हुआ।
पटना में आर. एस. गवई का विरोध हुआ तो भला मुंबई में राज ठाकरे कैसे चुप रहते। उन्होंने तो मराठियों के आत्मसम्मान की रक्षा का ठेका लिया हुआ है। उन्होंने सोनिया गांधी से बिहारियों को बिहार भेजने की मांग कर डाली, जैसे कौन कहां रहेगा और क्या करेगा, यह सोनिया गांधी और राज ठाकरे ही मिलकर तय करेंगे। हां, केंद्र में शासन चला रहे सबसे बड़े दल कांग्रेस की मुखिया होने के कारण उन्होंने और उनकी मनमोहनी सरकार ने उस समय जो चुप्पी बनाए रखी थी, उसी ने राज ठाकरे को उनसे यह मांग करने की हिम्मत दे डाली है।
इतना कुछ होने के बाद पुराना अनुभव कहता है कि इन वाद-विवादों के बावजूद बड़ी हस्ती वाले राजनेताओं का तो इससे कुछ नहीं बिगड़ेगा, संभव है कि कुछ दिनों बाद सब कुछ शांत हो जाएगा और ये तथाकथित हस्तियां इन बातों को भुलाकर फिर किसी व्यक्तिगत आयोजन या सावॅजनिक समारोह में गलबहियां डाले दिख जाएं। मुसीबत तो उन गरीब उत्तर भारतीयों की हुई जो अपनी रोजी-रोटी (चाहे जैसी ही रही हो) को छोड़कर वापस अपने देस जाने को विवश हुए और वहां रोजगार ही क्या, दो जून की रोटी को भी मोहताज होंगे। उनके पेट भरने की जिम्मेदारी न तो लालू यादव लेंगे और न ही अमर सिंह या अबू आजमी। इसका दूसरा पहलू भी आज ही किसी अखबार में दिखा कि मुंबई और महाराष्ट्र के अन्य शहरों के उद्योगों को मजदूरों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। हो गया न सब गुड़ गोबर। जिसे काम चाहिए उसका काम छिन गया औऱ उद्योगों को मजदूर नहीं मिल पा रहे। अब बढ़ाते रहो विकास दर। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम कितना भी कुछ कर लें, इन दुष्परिणामों से देश को कैसे बचा पाएंगे।
एक पुराना वाकया याद आता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के नेतृत्व में चल रही सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भारी मन से युवा तुकॅ के इस नेता ने कहा था-
गैर मुमकिन है कि हालात की गुत्थी सुलझे
अहले दानिश ने बड़ा सोचकर उलझाया है।
लगता है एक बार फिर वैसी ही परिस्थितियां बन आई हैं हमारे प्यारे देश के सामने। ऊपरवाले से प्राथॅना है कि वही सद्बुद्धि दे इन बददिमागों को और भारत देश महान जैसा है वैसा ही बना रहे-अनेकता में एकता का परचम लहराने वाला।
कितने कमरे!
6 months ago
2 comments:
Dear Manglam ji
It is true. Rajyapal jee ka kya galati hai.
Thanking you.
Suresh Pandit
सही कहते हैं आप..
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