Sunday, December 9, 2007

ना जाने कित ते प्रकटें....

पत्रकारिता का पेशा और रात की नौकरी से होने वाली परेशानियां तो अब आदत में शुमार हो गई हैं। किसी भी मित्र, प्रियजन के यहां आयोजित होने वाले कायॅक्रम में भाग नहीं लेने के बाद हाथ जोड़कर या फिर एसएमएस, ई-मेल और कभी-कभी पत्र के जरिये माफी मांग लेने की मजबूरी....तो वे सब भी समझ चुके हैं। अभी पांच-छह दिन पहले ही एक मित्र के बड़े भाई की शादी शहर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर उनके पैतृक निवास पर थी, सो देर से सोने के बावजूद सुबह निकले, वहां पहुंचे, अपना थका हुआ थोबड़ा दिखाया, घुड़चढ़ी का इंतजार कर रहे दूल्हे को बधाई दी, सजने से पहले मित्र की होने वाली भाभी को भावी जीवन की मंगलकामनाएं दीं, शाम के खाने की तैयारियों का जायजा लिया और खाना खाकर वापस रवाना हो लिया। सड़क अच्छी थी और टैक्सी के ड्राइवर को मुझे सकुशल दफ्तर पहुंचाने की जिम्मेदारी का अहसास था सो जैसे-तैसे करीब आधा घंटा लेट पहुंच गया ऑफिस और संभाल ली कमान।
...ये क्या, मैं तो अपनी पुरानी दास्तान सुनाने लगा था, कहना तो कुछ और ही चाहता था। खैर, अब बताता हूं। आज शाम भी ऑफिस आने में देर हो रही थी। साथ ही काम करने वाले मित्र बाइक चला रहे थे। ऑफिस पहुंचने की जल्दबाजी थी, लाल बत्ती होने के बावजूद चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस के सिपाही को नहीं देख मित्र ने रुकना मुनासिब नहीं समझा और चल दिए मंजिल की ओर....पर यह क्या...चौराहा पार करते ही एक ट्रैफिक सिपाही प्रकट हुआ और हमें रोक लिया। उसके उपदेश सुनने में हमें जितना समय लगा, उससे कम में शायद लाल बत्ती हरी हो चुकी होती और हमें पुलिसिया प्रवचन सुनना नहीं पड़ता। कुल मिलाकर बात यह है कि ट्रैफिक पुलिस की तैनातगी ट्रैफिक को व्यवस्थित करने के लिए की जाती है, लेकिन अपने देश में तो ट्रैफिक सिपाही शिकार फांसने की ही ताक में ही रहते हैं। यातायात व्यवस्थित हो न हो, उनकी जेब शाम होते-होते जरूर व्यवस्थित हो जाती है और कुछ चालान कट गए तो सरकारी कोष भी व्यवस्थित हो जाता है। सो मैंने तो सीख ले ही ली, आप सब भी सावधान रहें, चौराहे के बीच में लगे ट्रैफिक पोस्ट पर भले सिपाही न दिखे, लाल बत्ती को क्रॉस करने की हिम्मत न करें, ट्रैफिक सिपाही कहीं भी, कभी भी प्रकट हो सकता है। खुदा खैर करे......

4 comments:

DUSHYANT said...

मंगलम जी , आपकी पीड़ा में शरीक हूँ और एक बात ज़रूरी कि बहुत शराफत से पेश आओगे तो भविष्य उज्ज्वल नहीं होगा

पुनीत ओमर said...

पूर्ण सहानुभूति है आपसे.. पत्रकार होने की थोडी बहुत कीमत तो चुकानी पड़ेगी न आपको. देर से ही सही पर मित्र लोग आपको पहचान तो गए na..

रवीन्द्र प्रभात said...

पत्रकारिता में समय न मिल पाने की पीडा और उस पीडा के बहाने आपने दर्द उकेरा है , वह नि:संदेह सहानुभूति योग्य है .अच्छा लगा पढ़कर !

suresh said...

Dear Manglam ji
Very good

Thanks

Suresh Pandit