जी हां, कल यानी ८ दिसंबर को राजस्थान की वसुंधरा सरकार की चौथी वषॅगांठ थी। इस अवसर पर पिंकसिटी में विधानसभा भवन के पास स्थित अमरूदों के बाग में सरकार व भाजपा की ओर से रैली का आयोजन किया गया था। अमूमन ऐसी रैलियों में आने वाली भीड़ की खबर अपन को टीवी चैनलों या अगले दिन के अखबारों में ही मिल पाती है, लेकिन कल किसी कारणवश मुझे शहर जाना जरूरी था। रैली ११ बजे होनी थी और मैं करीब १२ बजे घर से निकला। मैं जिस मागॅ से जा रहा था, वह रैली स्थल और रैली के मागॅ से करीब तीन-चार किलोमीटर दूर था। रास्ते में सड़क पर दोनों ओर बाहर से आई बसें कतार में खड़ी थीं, औऱ सड़क पर जो सारी मिनी बसें और बड़ी बसें चल रही थीं, उन पर लगे बैनर यह सूचना दे रहे थे उस पर बैठी सवारियां रैली में ही जा रही हैं। शाम करीब चार बजे लौटा तब तक सड़क पर खड़ी बसें यथावत थीं और लोगों के झुंड के झुंड चले जा रहे थे। रैली से लौटते वाहन सड़कों पर रेंग रहे थे और मेरे सरीखे लोग जिन्होंने घर से बाहर निकलने की जुरॅत की थी, वे गियर बदलते-बदलते परेशान यही सोचने को विवश थे कि घर से बाहर निकले ही क्यों। ऐसे लोग भी मिले जो किसी से टकराते-टकराते बचे थे, तो ऐसे भी मिले जिनके छिले हुए घुटने और कोहनियां उनका हाले दिल बयां कर रही थीं। राजधानी देखने की ललक अभी भी गांवों के लोगों में हैं, तभी तो वे स्थानीय कायॅकरताओं की बातों में आकर बड़े नेताओं के दशॅनों का मोह नहीं छोड़ पाते।
खैर, यह सब तो चलता ही रहेगा। रैली में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने जमकर घोषणाएं कीं। सरकारी कमॅचारियों, संविदा नरसेज, डॉक्टरों, आंगनबाड़ी कायॅकरताओं, पैराटीचसॅ, शिक्षाकरमियों, छात्र-छात्राओं, किसानों, आम लोगों, बेरोजगारों...यूं कहें कि हर किसी के लिए उम्मीदों का पिटारा सा खोल दिया गया। ऐसे में यह सोचने को विवश हो गया कि हमारे देश में लोगों को वोटर ही समझा जाता है, आदमी नहीं, वरना आजादी के बाद से लेकर अब तक शायद परिस्थितयां वैसी नहीं होतीं, जैसी आज हैं। राजनीतिक दल चुनाव से पहले घोषणा पत्र में सब्जबाग दिखाते हैं और यदि उनके सहारे चुनाव की वैतरणी पार कर जाते हैं तो फिर अगले चुनाव से ऐन पहले होने जश्न में अपनी उपलब्धियां गिनाने के नाम पर गरीब जनता का पैसा पानी की तरह बहा डालते हैं।
किस्मत भी कोई चीज है
८ दिसम्बर २००३ को राजस्थान के साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में भी सरकारें बनी थीं। इनमें महारानी वसुंधरा तो चार वषॅ में आई अनेक विषम परिस्थितियों के बावजूद सत्ता पर आसीन रहीं, शीला दीक्षित औऱ रमण सिंह को तो कोई खतरा था ही नहीं किसी से, सो वे आज भी उसी ठाठ से राज कर रहे हैं, जिस ठाठ से चार साल पहले कुरसी पर बैठे थे। हां, साध्वी से राजनीति की पगडंडियों के रास्ते दिग्विजय सिंह से कुरसी छीनने वालीं उमा भारती के भाग्य में राजयोग ज्यादा दिन तक नहीं रहा। भाजपा छोड़ने के बाद उनकी आज जो स्थिति है, सबके सामने है।
कितने कमरे!
6 months ago
1 comment:
Dear sir
Thanks
Suresh pandit
Email: biharssangathan@yahoo.com
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