कवि सम्मेलन में नियमित रूप से हाजिरी देने वालों का यह ददॅ अक्सर ही उनके जुबान पर आ जाया करता है कि ये कवि नाम हो जाने के बाद तो नया तो कुछ सुनाते ही नहीं, बस अपनी प्रतिनिधि काव्य रचना का ही बार-बार पाठ करते रहते हैं, अब कविता भले ही बहुत ही सोणी हो, लेकिन बोरियत तो होती ही है। कई मित्रों ने ऐसी शिकायत की और कइयों ने तो इससे थक-हारकर कवि सम्मेलनों से ही किनारा कर लिया, लेकिन ऐसे में गाजियाबाद के कवि डॉ. कुमार विश्वास का मैं विशेष आभारी हूं (दूसरे श्रोता भी अवश्य ही होंगे) कि एक वषॅ में तीसरी बार और महज एक ही महीने में दूसरी बार उन्हें सुनने का सुअवसर मिला, लेकिन उन्होंने अपनी नई काव्य पंक्तियों से हमें रू-ब-रू करवाया महज दो-चार-छह गिनी-चुनी पंक्तियों को छोड़कर। संचालक का आसन छोड़कर उन्होंने माइक संभाला और कुछ यूं मुखातिब हुए----
किस्मत सपन संवार रही है सूरज पलकें चूम रहा है
यूं तो जिसकी आहट भर से धरती-अंबर झूम रहा है
नाच रहे हैं जंगल-पवॅत मोर चकोर सभी लेकिन
उस बादल की पीड़ा समझो जो बिन बरसे घूम रहा है
फिर आशावाद की एक किरण यूं फूटी---
भीड़ का शोर जब कानों के पास रुक जाए
सितम की मारी हुई वक्त की इन आंखों में
नमी हो लाख मगर फिर भी मुस्कुराएंगे
अंधेरे वक्त में भी गीत गाए जाएंगे
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तूने पूछा है जूस्तजू क्या है
दिल ही जाने कि आरजू क्या है
तेरे होने से मेरा होना है
मैं नहीं जानता कि तू क्या है
कवि हृदय का ददॅ कुछ यूं शब्दों में ढला
जी नहीं सकता तो जीने की तमन्ना छोड़ दे
बहते-बहते जो ठहर जाए वो दरिया छोड़ दे
फूल था मैं मुझे कांटा बना दिया
और अब कहते हैं कि चुभना छोड़ दे
और अब उनकी --लड़की--शीषॅक से प्रसिद्ध कविता की कुछ पंक्तियां---
पल भर में जीवन महकाएं, पल भर में संसार जलाएं
कभी धूप हैं कभी छांव हैं,
बफॅ कभी अंगार., लड़कियां जैसे पहला प्यार
बचपन के जाते ही इनकी गंध बसे तन मन में
एक कहानी लिख जाती हैं ये सबके जीवन में
बचपन की ये विदा निशानी
यौवन का उपहार, लड़कियां जैसे पहला प्यार
इसकी खातिर भूखी प्यासी रहें रात भर जागें
उसकी पूजा को ठुकराएं छाया तक से भागें
इसके सम्मुख छुई-मुई हैं,
उसके हैं तलवार, लड़कियां जैसे पहला प्यार
राजा के सपने मन में हैं और फकीरों संग हैं
किस्मत औरों के हाथों खिंची लकीरों संग हैं
सपनों सी जगमग जगमग हैं
जीवन सी लाचार, लड़कियां जैसे पहला प्यार
और अब आए जगदीश सोलंकी ने जीवन में आधुनिक सुख-सुविधाओं के बढ़ते जा रहे दखल पर अपनी दखलंदाजी को यूं स्वर दिया---
पढ़ते थे टाट पट्टियों पर जब बैठकर
तब तक धरती की गंध से लगाव था
नानी और दादी की कहानी जब सुनते थे
समझो कि हमें सत्संग से लगाव था
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कभी जो कबूतरों को दाना डाला करते थे
सुनते हैं अब वो सज्जाद होने जा रहे
उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता--तिरंगा--के माध्यम से हामारे राष्ट्रध्वज की पीड़ा को शब्दों में सहेजा है, यह कविता जब उपलब्ध होगी, तो आपके सामने रखूंगा, यदि आपमें से किसी के पास हो तो आप मुझे भेज दें, स्वागत है।
कवि सम्मेलन अब अपने पूरे शबाब पर था और इस संध्या के सबसे बड़े आकषॅण थे गीतकार-कवि-शायर डॉ. कुंअर बेचैन, जिन्हें सुनने के लिए श्रोता दिल थामे, शॉल-जैकेट में दुबके बैठे थे। तो अब सीधे आते हैं उनकी कविताओं पर-----
पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है
पर तू जरा भी साथ दे तो और बात है
चलने को तो एक पांव से भी चल रहे हैं लोग
पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है
आज के जमाने में एक-दूसरे के प्रति मची काट-मार और सबका दुख-ददॅ बांटने वालों की स्थिति पर कुछ यूं कहा--
दो चार बार हम जो कभी हंस हंसा लिए
सारे जहां ने हाथ में पत्थर उठा लिए
उसने फेंके मुझ पे पत्थर और मैं पानी की तरह
और ऊंचा..और ऊंचा...और ऊंचा उठ गया
और आशावाद की सीख---
दुनिया ने मुझपे फेंके थे पत्थर जो बेहिसाब
मैंने उन्हीं को जोड़कर खुद घर बना लिए
संठी की तरह मुझको मिले जिंदगी के दिन
मैंने उन्हीं में बांसुरी के स्वर बना लिए
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पहले तो ये चुपके-चुपके यूं ही हिलते डुलते हैं
दिल के दरवाजे हैं आखिर खुलते खुलते खुलते हैं
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दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
कुछ भी लिखने का हुनर तुझको अगर मिल जाए
इश्क को अश्कों के दरिया की रवानी लिखना
क्या ऐ सूरज तेरी औकात है इस दुनिया में
रात के बाद भी एक रात है इस दुनिया में
शाख से तोड़े गए फूल ने ये हंसकर कहा
अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में
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होके मायूस न यूं शाम से ढलते रहिए
जिंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए
एक ही ठांव पे ठहरेंगे तो थक जाएंगे
धीरे-धीरे ही सही राह पर चलते रहिए
किसी भी हाल में हिम्मत न हारने की सीख डॉ. बेचैन ने इस प्रकार दी---
गमों की आंच पे आंसू उबालकर देखो
बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो
तुम्हारे दिल चुभन भी जरूर कम होगी
किसी के पांव से कांटा निकालकर देखो
वो जिसमें लौ है विरोधों में और चमकेगा
किसी दीये पे अंधेरा उछालकर देखो
कड़ी नजर से न देखो कि टूट जाऊंगा
मुझे ऐ देखने वालो संभालकर देखो
और इस तरह शाम से शुरू हुआ कविताओं का सफर आधी रात बात करीब ढाई बजे अपने मुकाम पर पहुंचा। मैं भी इस ब्लॉग को विराम दे रहा हूं, शीघ्र ही फिर उपस्थित होऊंगा, तब तक के लिए अलविदा.......गुड बॉय.....धन्यवाद।
कितने कमरे!
6 months ago
2 comments:
वाह जनाब
HHello
Thanks
Suresh Pandit
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