Monday, December 17, 2007

अगहन की एक रात-बात कविताओं की

कलम के सिपाही उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी--पूस की रात--में पौष महीने की हाड़ कंपाने वाली सरदी का वणॅन कर इसे प्राण प्रतिष्ठित सा कर दिया है, लेकिन इस बार अगहन में ही सरदी अपने चरम पर है। शनिवार १५ दिसंबर की शाम करीब तीन घंटे खुले आसमान के नीचे लोकनृत्य-संगीत का आनंद उठाने के बाद भी तृप्ति नहीं हुई और दिल था कि मचलता ही रहा सदॅ रात में बाइक पर करीब दस किलोमीटर की यात्रा कर कवि सम्मेलन में पहुंचने के लिए। काफी मिन्नतें कर बड़ी मुश्किल से एक मित्र को तैयार किया साथ चलने को और ४.७ डिग्री सेल्सियस में हम दोनों चल पड़े अपने सफर पर। करीब १० बजकर २० मिनट पर पहुंचे सांगानेर स्टेडियम में तो कवि सम्मेलन अपना करीब आधा सफर तय कर चुका था। फिर भी हमारे हिस्से जो कवि आए, वे हमारे मानस को तृप्त करने के लिए कम नहीं थे। जयपुर नगर निगम की ओर से गुलाबी नगर की स्थापना के वषॅगांठ के तहत आयोजित किए जा रहे इस तीसरे कवि सम्मेलन को यदि सबसे अधिक सफल आयोजन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पांडाल में जितनी कुरसियां लगाई गई थीं वे तो भर ही गई थीं, पीछे का वीरान मैदान भी आबाद था। काव्यरसिक लोग खड़े होकर भी कविताएं सुनने से नहीं हिचके। मैं तो आपलोगों को काव्य संध्या की कविताओं से रू-ब-रू कराना चाहता था, लेकिन बेकार ही बातें बनाने लगा, सो अब सुनिए कविताएं।
जब मैं पहुंचा तो ग्वालियर की राणा जेबा श्रोताओं को मोहब्बत और जिंदगी की हकीकत से मुखातिब करा रही थीं-

तुम मेरे साथ हो भीगती रात में
लग न जाए कहीं आग बरसात में
इनको मिलती नहीं है मोहब्बत कहीं
मांगते हैं मोहब्बत जो खैरात में
बात करने की फुरसत नहीं है हमें
हम कहां आ गए बात ही बात में
आज फिर उनके आने की आई खबर
आज फिर दिन निकल आएगा रात में
पूछती रहती हूं मौत का मैं पता
जिंददी मुझको देना है सौगात में।

उदयपुर से आए राव अजातशत्रु ने अपने निराले अंदाज में श्रोताओं को इतना हंसाया कि लिखने की सुध ही नहीं रही, फिर भी
वो दोस्ती के दायरे बेमेल करता है
मैं चिट्ठिया लिखता हूं वो ई-मेल करता है
इसके बाद जयपुर के ही स्वनामधन्य कवि सम्पत सरल ने अपनी टिप्पणियों से श्रोताओं से खूब ठहाके लगवाए। उन्होंने गद्य विधा में--बातचीत--शीषॅक से व्यंग्य के माध्यम से भारत-पाकिस्तान के बीच सालों से होने वाली बातचीत की साथॅकता को रेखांकित किया।
इसके बाद कवि सम्मेलन के संचालक डॉ. कुमार विश्वास ने राजधानी दिल्ली से आईं अना देहलवी को इन पंक्तियों में काव्यपाठ के लिए बुलाया-
निगाह उठे तो सुबह हो झुके तो शाम हो जाए
अगर तू मुस्कुरा भर दे तो कत्लेआम हो जाए
जरूरत ही नहीं तुझको मेरे बांहों में आने की
तू ख्वाबों में ही आ जाए तो अपना काम हो जाए

और फिर अना देहलवी कुछ इस अंदाज में तशरीफ लेकर आईं-

दिल में जो है मेरे अरमान भी दे सकती हूं
सिफॅ अरमान ही नहीं ईमान भी दे सकती हूं
मुल्क से अपने मुझे इतनी मोहब्बत है अना
मैं तिरंगे के लिए जान भी दे सकती हूं
देशभक्ति से बात बढ़ती हुई हिंदी-उरदू प्रेम की ओर से बढ़ी---
फूल के रंग को तितली के हवाले कर दूं
गालिबो मीर को तुलसी के हवाले कर दूं
आज में मिला दूं मैं सगी बहनों को
यानी उरदू को मैं हिंदी के हवाले कर दूं
युवकों के मजनू बनने की अदा को उन्होंने कुछ यूं जुबान दी---
कोई ये बोला कि जलवे लुटाने आई थी
कहा किसी ने कि बिजली गिराने आई थी
जरा सी बात के अफसाने बन गए कितने
मैं अपनी छत पर दुपट्टा सुखाने आई थी।
और फिर मोहब्बत की दास्तां कुछ यूं परवान चढ़ी---
तुम्हारी यादों के चंद आंसू हमारी आंखों में पल रहे हैं
न जाने कैसे हैं ये मुसाफिर न रुक रहे हैं न चल रहे हैं
धुआं-धुआं ये शमां है आ जा, कहां है आ जा कहां है आ जा
सितारे अंगड़ाई ले रहे हैं चिराग करवट बदल रहे हैं
उजाले अपनी मोहब्बतों के चुरा न ले जाएं डर रही हूं
सुना है जिस दिन से चांद-तारे हमारी छत पर टहल रहे हैं
जमाने वालो न बुझ सकेगा तुम्हारी फूंकों से प्यार मेरा
मेरे चिरागों के हौसले अब हवा से आगे निकल रहे हैं
नई शराबों पे जोर आया, न जाने ये कैसा दौर आया
संभलने वाले बहक रहे हैं, बहकने वाले संभल रहे हैं
कहां की मंजिल कहां के रहबर, अना भरोसा नहीं किसी पर
जगाने निकले थे जो जहां को, वो ही नींदों में चल रहे हैं
तुम्हारी यादों के चंद आंसू.....
और कुछ रंग यूं भी भरे शायरी ने-----
आंखों से आंखों को सुनाई जाती है
दुनिया से जो बात छुपाई जाती है
चांद से पूछो या मेरे दिल से
तन्हा कैसे रात बिताई जाती है
घाट-घाट पे पीने वाले क्या जानें
शबनम से भी प्यास बुझाई जाती है
कागज की एक नाव बहाकर दरिया में
तूफानों से शतॅ लगाई जाती है
इश्क करूंगी और अना मैं देखूंगी
आग से कैसे आग बुझाई जाती है
इसके बाद आए जयपुर के ही अब्दुल गफ्फार ने वीर रस की कविताओं से काव्य संध्या का जो शृंगार किया, तो सभी श्रोताओं के साथ मेरी भी भुजाएं फड़कने लगीं, पाकिस्तान की नापाक हरकतों से लेकर रामसेतु प्रकरण पर एम. करुणानिधि की करुणानिधान भगवान राम के प्रति की गई टिप्पणी पर कवि के तीखे तेवर जब होठों पर आए तो उनकी कोट के बटन टूटकर बिखरने लगे, फिर डायरी और कलम मेरे हाथों में कैसे रुकी रहती,, सो महज दो पंक्तियां
बेशक पाकिस्तान मिटाना हम सबकी मजबूरी है
घर के सब गद्दार मिटाना पहले बहुत जरूरी है
रात गहराती जा रही थी और कवि सम्मेलन अपनी ऊंचाइयों को छू रहा था, अब भी जो शेष कवि थे उनकी रचनाएं कुछ कम विशेष नहीं हैं, लेकिन उनके लिए कीजिए बस थोड़ा सा इंतजार..............

2 comments:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

मंगलम जी, आपका लाख-लाख धन्यवाद कि बिना कडकडाती सर्दी झेले भी मुझे कवि सम्मेलन का आनन्द मिल गया. बहुत बढिया वर्णन किया है आपने. मुख्यधारा के समाचार पत्रों में भला ऐसा वर्णन कहां नसीब हो पाता है!
आप की कलम ऐसे ही चलती रहे यही कामना है.

अभिषेक शुक्ल said...

बेहतरीन। कृप्या मेरे ब्लाग पर पधारे मुझे खुशी होगी...www.omjaijagdeesh.blogspot.com