' सहदेव बोला- वैसे इन दिनों आसपास के वनों में फलों की कमी नहीं है। वृक्ष फलों के बोझ से लदे पड़े हैं। हमारा प्रयत्न है कि अन्न को अभी सुरक्षित रखा जाए और जब तक फल उपलब्ध हैं, फलाहार ही किया जाए।Ó नरेंद्र कोहली के 'महासमरÓ के पंचम खंड 'अंतरालÓ के अंतिम पृष्ठों में पांडवों के बारह वर्ष के वनवास के प्रसंग को पढ़ते हुए अचानक अपना बचपन याद आ गया। मैं गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ता था, जहां आज के इंग्लिश मीडियम स्कूल की तरह गर्मी की छुट्टी में होमवर्क का बोझ बच्चों के सिर पर नहीं लादा जाता था। ऐसे में गर्मी की छुट्टी का मतलब होता था नॉन स्टॉप मस्ती। ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीने में हम पूरी तरह आम के बगीचे के होकर रह जाते थे। बगीचे में अस्थायी मड़ैया बना दी जाती थी, जहां हम सभी भाई-बहन दिनभर आम की रखवारी के साथ ही कोयल के साथ 'कू-कूÓ कूकने की प्रतियोगिता करते। आम के साथ ही जामुन का स्वाद भी बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता और कई बार जामुन के पेड़ से गिरने के बाद भी उसके प्रति हमारा प्रेम कम नहीं हो पाता। ऐसी कपोल कल्पित अफवाह थी कि रात में इन बगीचों में भूत-प्रेत आते हैं, इसलिए शाम होते ही घर आ जाते थे और रात में बगीचे की रखवारी की जिम्मेदारी हमारे ताऊजी ही संभाला करते थे।
हां, तो मुझे जिस संदर्भ में 'महासमरÓ की उपरोक्त पंक्तियां मेरे बचपन में ले गईं वो कुछ यूं थीं कि घर की माली हालत सामान्य ही थी। दो ताऊ किसान ही थे और बाबूजी की शिक्षक की नौकरी से मिलने वाली पगार परिवार की गाड़ी को जैसे-तैसे खींच पाती थी। ऐसे में जब हम खाना खाने बैठते तो दादी कहतीं कि रोटी कम से कम खाओ और आम से ही पेट भरो। हालांकि विभिन्न प्रजातियों के आम से स्वाद की एकरसता की समस्या भी नहीं हुआ करती थी, फिर भी बालसुलभ मन उन तर्कों को कहां माना करता था।
उन दिनों आम हर आमजन को सुलभ था। जिनके बगीचे नहीं होते और वे बगीचे में या घर पर आते तो कभी खाली हाथ नहीं लौटते। आम बेचने का चलन तो बिल्कुल ही नहीं था या यूं कहें कि इसे बुरा माना जाता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुझे लगता है कि हर किसी की पहुंच में होने के कारण ही फलों के राजा का नामकरण 'आमÓ किया गया होगा।
आज जब गुलाबी नगर में रहते हुए 50 से 70 रुपए किलो तक आम खरीदना पड़ता है तो आटे-दाल का भाव सहज ही याद आ जाता है। बचपन से मुंह लगा आम का स्वाद अन्य खर्चों में कटौती की कीमत पर ही पूरा हो पाता है। इसके साथ ही सामान्य परचूनी की दुकान में भी 15 रुपए किलो आटा मिलता है और पैकेटबंद आटा भी 20-22 रुपए किलो तक मिल पाता है। ऐसे में आम भी खास लोगों की पहुंच तक सिमटकर रह गया है और आटे के लिए भी आम आदमी को इस कदर अंटी ढीली करनी पड़ती है कि जरूरत की बाकी चीजों के लिए समझौते के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।
डर को धूल चटाकर जीता आसमान
5 years ago
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