मकर संक्रांति पर बेजुबान परिंदों की पीड़ा को शब्द देने का अभी एक दिन पहले ही मैंने असफल प्रयास किया था। जननी और जन्मभूमि से दूर होने की खुद की पीड़ा तो अपनी जगह है, जो कभी-कभार उभर ही आती है। कल रात जब http://mera-bakvaas.blogspot.com पर भाई पद्मनाभ मिश्र ने मिथिला की संक्रांति की याद ताजी कर दी तो मेरे ददॅ से भी पपरी हट सी गई और घाव एक बार फिर हरा हो गया।
पवॅ के अवसर पर पीड़ा का जिक्र करना तो उचित नहीं है, सो हमारे प्राणों में बसी उत्सवप्रियता की ही बात कर रहा हूं। आज जब टाटा की मेहरबानी से नैनो आ गई है और मध्यम क्या, अल्प आय वगॅ की नयनों में भी कार के सपने सजने लगे हैं, लेकिन जब खाने के भी लाले थे, तब भी लोगों ने उत्सवप्रियता का दामन नहीं छोड़ा था और आज जब विकास दर आसमान छू रही है, तब भी उत्सवप्रियता का उत्स अपने उसी स्वरूप में बरकरार है।
तो मैं आपको बता रहा था कि बिना रोकड़ा खचॅ किए भी उत्सव कैसे मनाया जा सकता है, इसका उपाय बिहार के किसानों ने सदियों पहले से निकाल रखा है। अगहन-पूस में धान की नई फसल तैयार होती है तो इसके चिवड़ा के मीठे-मुरमुरे स्वाद का तो कहना ही क्या? इन्हीं दिनों गन्ने की भी पिराई कोल्हू में खुद के ही बैलों से ही की जाती थी और घर का गुड़ तैयार हो जाता था। (राज्य सरकार की नीतियों के कारण अधिकतर चीनी मिलों में ताले लग गए, सो गन्ने की खेती पर भी इसका असर पड़ा है। गुड़ के भाव भी चीनी से उन्नीस नहीं हैं, इसलिए चीनी से ही काम चला लिया जाता है और चीनी खरीदना भी बूते से बाहर की बात नहीं रही।) बथान में गाय-भैंस थी तो दही तो होना ही था। ....और लीजिए इस सबसे मिलाकर मना ली जाती है बज्जिकांचल में मकर संक्रांति।चिवड़ा-दही-गुड़ या फिर चीनी की त्रिवेणी जब थाली में सजती है तो फिर पूछिए मत, ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है। इसके साथ ही चिवड़ा को भूनकर और चावल से बने मूढ़ी (फरही) से गुड़ की चासनी में गोल-गोल लाई बनाई जाती है, जो बच्चे ही नहीं, बुजुगॅ भी अपने थके हुए दांतों से चाव लेकर खाते हैं। भगवान सूयॅ जब मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो तिल का महत्व भी बढ़ जाता है तो इसे भी तरजीह दिया जाता है इस त्यौहार में। गुड़ की चासनी में सफेद और काले तिल के लड्डू भी बनाए जाते हैं। यह तो हुआ सुबह का भोजन अब आईए शाम के भोजन का जायका लेते हैं।
तो शाम को विशेष खिचड़ी बनाई जाती है, जिसमें चावल और दाल के साथ भांति-भांति की सब्जियां भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहतीं। सब्जी तो खिचड़ी के साथ एकाकार हो गई, उसका अस्तित्व भी तो खत्म कैसे होने दिया जाए, तो बैंगन या आलू का भुरता भी बना लिया जाता है, जिससे सब्जी का अस्तित्व और खिचड़ी के साथ उसका सहअस्तित्व दोनों ही कायम रहें। हां, खिचड़ी से जुड़े व्यंजनों ने वहां मुहावरे का रूप ले लिया है। वहां काफी प्रचलित है-खिचड़ी के चार यार-घी, दही, पापड़ और अचार। (इनमें भी पापड़ के लिए ही कुछ पैसे खरचने पड़ते हैं, बाकी तो सब घर का ही होता है। ) तो ये चारों भी थाली में अपनी महत्वपूणॅ भूमिका निभाते हैं औऱ फिर जो मिला-जुला भाव खाने वाले के चेहरे पर आता है वह होता है तृप्ति का भाव।
देख लिया न आपने, संक्रांति पर अपनी संस्कृति को साथ रखने में बज्जिकांचल के लोगों को किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। यदि कुछ जाता है तो वहां का अलाव और उसके घेरे में बचपन से बैठने वाले साथी। अब घर से दूर हैं तो इतना तो सहन करना ही पड़ेगा।
1 comment:
..... मेरे लिए तो आपकी बकवास पढ़ना अब जरूरत बन जाएगी। .....
भाई आपकी बात मे दिल को छू गई. मै आपका ई-मेल शामिल किए देता हूँ. शायद मै अब मिथिला के सँस्कृति के बारे मे ज्यादा लिख पाऊँ.
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