किराये के मकान में रहने के सुख भी हैं और दुख भी। दसवीं बोडॅ की परीक्षा पास करने के बाद से ही घर से दूर किराये के मकानों में रहता आया हूं। किराये में रहने का सुख यह है कि खुदा न खास्ते मकान में कोई गड़बड़ी हो तो मालिक मकान से शिकायत कर दो। उसकी मेहरबानी हुई तो दो-चार दिन में वह उसे सही करवा ही देगा। न प्लास्टर उखड़ने की चिंता न रंग-रोगन कराने की फिक्र। अपनी सुविधा के अनुसार किरायेदार मकान बदल भी लिया करते हैं, लेकिन इसका दूसरा दुखद पहलू यह है कि जब आपको कोई परेशानी नहीं हो, आप मजे में किराये के मकान में अपनी जिंदगी गुजार रहे हों, और मालिक मकान नाम का जीव बिना किसी कारण के आपको मकान खाली करने का अल्टीमेटम दे दे। फिर शुरू होती है एक और अदद मकान की तलाश। राम को तो सीता का पता लगाने के लिए हनुमान मिल गए थे, लेकिन हर किसी के भाग्य में ऐसा कहां होता है। ले-देकर अखबारों में छपने वाले क्लासीफाइड विज्ञापनों और मकानों के बाहर लग रहे टू-लेट के बोडॅ का ही आसरा होता है। आजकल मैं भी कुछ ऐसी ही परेशानियों से घिरा हुआ हूं। .....खैर..किसी और मुद्दे पर अपने दिल की बात शेयर करना चाहता था, लेकिन एक बार फिर लीक से हट गया। मकान बदलना है तो शायद मुहल्ला भी बदल जाए, मिड सेशन में बच्चे का स्कूल बदलना बच्चे के साथ मेरी जेब के लिए भी थोड़ा कष्टप्रद हो सकता है, सो मैं छुट्टी के समय स्कूल गया, जिससे नए मोहल्ले की ओर जाने वाले ऑटोरिक्शा वाले से बातचीत कर सकूं। बच्चे एक-एक कर ऑटो के पास आ रहे थे और ड्राइवर को अपने भारी स्कूल बैग थमा रहे थे। इस दौरान बच्चों के संबोधन ने मुझे कुछ सोचने पर विवश कर दिया। पांच से बारह साल तक के बच्चों में से कोई भी ऑटो ड्राइवर को अंकल नहीं बोल रहा था, सभी ड्राइवर को --ऑटो वाले जी--बोल रहे थे। मुझे तो बच्चों के संबोधन ने आहत किया ही, संभव है कि ऑटो ड्राइवर को भी अच्छा नहीं लग रहा हो, लेकिन वह कर भी क्या सकता था। बच्चों को तहजीब का पाठ पढ़ाने वाले ही रिक्शा वाले को ---रिक्शा---कहकर निरजीव होने का बोध कराते हों, तो बच्चों से क्या आशा की जा सकती है। जहां तक मेरा अनुभव है, स्कूली बच्चों को नियमित रूप से लाने-ले जाने वाले ऑटोरिक्शा ड्राइवर बच्चों से स्नेहिल संबंध जोड़ लेते हैं। मेरा बच्चा भी कई बार घर लौटता है तो चहकते हुए बताता है आज ऑटो वाले अंकल ने सभी बच्चों को टॉफी खिलाई या फिर आइसक्रीम खिलाई। ऑटो रिक्शा ड्राइवर यदि ऐसा नहीं करें तो भी उनके व्यवसाय पर कोई फकॅ नहीं पड़ेगा, लेकिन शायद मानव स्वभाव की अच्छाइयां ही उनसे ऐसा कराती हैं। ऐसे में तथाकथित बड़े घरों के अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे उन्हें अंकल कहें तो बच्चों का कुछ नहीं बिगड़ेगा। हां, कच्ची उम्र में उनका अहं भाव तिरोहित होगा तो बड़ी उम्र में ऊंचे पदों पर पहुंचने के बावजूद उनकी मानवता की भावना कायम रहेगी।
2 comments:
विचारणीय है/
tehjeeb darasal khud hamse shuru hotee hai...samne aap aur peechee se we kee jagah wah se janm hotaa hai iska...
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