Wednesday, April 30, 2008

चंदा मामा दूर के...


`चंदा मामा दूर के, पुए पकाए गुड़ के,
अपने खाए थाली में, बच्चे को दे प्याली में,
प्याली गई टूट, बच्चा गया रूठ....´
संभव है यह कविता आप सबने भी बचपन में दादी या नानी से सुनी होगी और आपके बालमन पर अंकित ये शब्द मेरी तरह आपके मनो-मस्तिष्क पर आज भी अपनी उपस्थिति बनाए होंगे।
जी हां, मैं जिस पीढ़ी से हूं, उसमें से अधिकतर को ग्रामीण परिवेश में कॉन्वेंट की शिक्षा कहां नसीब होनी थी, सो नहीं हुई। सरकारी स्कूल ही हमारी मंजिल थे और उसके अध्यापक हमारे रोल मॉडल। वे जैसा और जितना पढ़ाते थे, वह हमारे लिए कम नहीं होता था। अभिभावक स्कूल में बच्चों का दाखिला दिलाने के बाद अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते थे, बाकी का काम स्कूल और छात्र दोनों का ही होता था। सही मायने में सरकारी स्कूल जरूरतमंदों के लिए सबसे बड़ी मुफीद पहले भी थे, आज भी हैं। यहां `जरूरतमंद´ शब्द से मेरा अभिप्राय इसके प्रचलित अर्थ से कुछ इतर है। मेरा आशय है- जो जरूरत समझता हो, पढ़ाई करे, न समझता हो, मौज-मस्ती में मशगूल रहे। मास्टर साहब एकाध बार डांट-डपट देंगे, डंडा लेकर उनके पीछे थोड़े ही पड़े रहेंगे। ऐसे में दोनों ही तरह के छात्र बिना किसी बाधा के अपनी जरूरत के हिसाब से अपनी मंजिल पा लेते थे। सरकारी स्कूलों में भी योग्य शिक्षक होते हैं, इसमें कोई शक नहीं है तथा मेधावी व जिज्ञासु छात्र उनके मार्गदर्शन में उपलब्धियों की मंजिलें पाते रहे हैं, इसके प्रमाण आपलोगों ने इन स्कूलों के पाठ्यक्रम और पुस्तकों की भी अपनी विशेषताएं होती हैं। जहां तक मुझे याद आता है, गणित की पुस्तकों में दिए गए उदाहरणों के सहारे अमूमन सारे सवाल हल कर लिए जाते थे। स्कूल में कभी भी ऐसा सबक (टास्क) नहीं मिला होगा, जिसमें माता-पिता की मदद लेनी पड़ी हो। अध्ययन काल से ही स्वावलम्बन का ऐसा पाठ और कहां पढ़ाया जाता होगा। फिर, ग्रामीण परिवेश में अभिभावकों की भी अपनी चिंताएं होती हैं, न तो उनके पास समय होता है और न सामथ्यॅ कि वे बच्चों के साथ माथा लड़ाएं। हां, रिजल्ट आने पर बच्चे की उपलब्धि पूछकर अपना सालाना फर्ज जरूर अदा कर लेते थे। कुछ फिसड्डी छात्रों के रिजल्ट की जानकारी उनके साथियों के माध्यम से पिता तक पहुंच जाती थी और इसके छह महीने या सालभर के अंदर (कभी-कभी डेढ़-दो साल भी) ऐसे छात्रों को शिक्षा से हटाकर किसी और क्षेत्र में दीक्षित करने के प्रयास शुरू हो जाते थे।
मैं फिर बह गया भावनाओं के मझधार में। बेटे के कारण अपनी परेशानियां बताना चाहता था और अपने बचपन के çदनों में खो गया। जी हां, मेरा बेटा तकरीबन आठ साल का होने को है और महज तीसरी कक्षा में पढ़ता है। अभी दो çदन पहले उसे स्कूल से टास्क मिला कि ड्राइंग बुक में रात का एक दृश्य बनाए और उसके साथ (moon) पर चार से छह पंक्तियों की कविता लिखकर लाए जो उसकी पाठ्यपुस्तक में न हो। जाहिर है, उसके लिए यह असंभव था। उसने ड्राइंग तो जैसे-तैसे बना ली और कविता की जिम्मेदारी मुझपर सौंप दी। मेरी भी अंग्रेजी में अपनी सीमाएं हैं, सो मैंने कई दोस्तों से पूछा तो बहुप्रचलित (twinkle twinkle little star...) से आगे कोई नहीं बढ़ सका। अंतत: आज के युग के सर्वमनोरथ पूर्ण करने वाले इंटरनेट ने समाधान सुझाया और बेटे की नजर में मेरी अज्ञानता उजागर होने से रह गई।
ऐसे में स्कूल संचालकों और पाठ्यक्रम बनाने वालों से मेरा इतना सा निवेदन है कि वे बच्चों को पढ़ाते हैं या उनके मां-बाप के ज्ञान की परीक्षा लेना चाहते हैं। क्या इंग्लिश मीडियम में बच्चे को पढ़ाने की तमन्ना रखना इतना बड़ा गुनाह है?

2 comments:

राजीव जैन said...

सचमुच आपने दिल की बात कह दी

अपन को भी चंदा मामा दूर के ही अब तक याद है।
वैसे अपन को आज एक एसएमएस आया है, हालांकि इस संदर्भ में ठीक नहीं है, पर है चांद से जुडा हुआ ही।
ये चांद भी अजब सितम ढाता है,ये चांद भी अजब सितम ढाता है।
बचपन में इसमें मामा और जवानी में सनम नजर आता है।

Udan Tashtari said...

सही मुद्दा उठाया है.

जरा फॉण्ट बड़े कर दें तो पढ़ने में हो रही कुछ तकलीफ कम हो-वरना तो बढ़ती उम्र का अहसास सताने लगता है. :)