तिलबा, लाई, चुल्लर, कसार...मकर संक्रांति के उपहार
बचपन के दिन भी क्या दिन थे। तब बिहार में स्कूल का सेशन जनवरी से दिसंबर तक होता था। दिसंबर के दूसरे हफ्ते तक वार्षिक परीक्षा संपन्न हो जाती और 22-23 दिसंबर तक रिजल्ट घोषित कर दिया जाता। इसके बाद बड़ा दिन की छुट्टी शुरू हो जाती जो नववर्षारम्भ तक चलती। कहने को तो 2 जनवरी को स्कूल खुल जाते, लेकिन हर विद्यार्थी के लिए अगली कक्षा की किताबें-कॉपी आदि समय से खरीदना संभव नहीं हो पाता था। इसलिए पढ़ाई की विधिवत शुरुआत गणतंत्र दिवस के बाद ही हो पाती थी। ऐसे में हम बच्चों के लिए यह समय छुट्टियां मनाने का ही हुआ करता था। इस दौरान कभी धान की कटाई के समय खेतों का रुख करना तो कभी खलिहान में धान की दउनी (थ्रेशिंग) के समय मेहा में बंधे बैलों को हांकना हमारा मुख्य शगल हुआ करता था।
सनातन परंपरा के अनुसार हिंदू धर्म के पर्व-त्योहार हिंदी महीनों के हिसाब से मनाए जाते हैं। होली कभी मार्च में आती है तो कभी अप्रैल में, दिवाली कभी अक्टूबर की शुरुआत में मनाई जाती है तो कभी नवंबर के अंतिम हफ्ते तक इंतजार करना पड़ता है। मगर यह पक्का था कि मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही मनाई जाएगी। इसलिए दिसंबर खत्म होने के साथ ही हम मकर संक्रांति के दिन गिनने लगते थे।
हमारा देश शुरू से ही कृषि प्रधान रहा है। पहले लोगों के पास नकदी की आमदनी न के बराबर थी। इसलिए आम जनजीवन में बाजार का दखल कम ही हुआ करता था। जिस इलाके में जिस फसल की बहुतायत होती थी, वहां के पर्व-त्योहार से लकर यज्ञ-प्रयोजन तक में भी उन्हीं वस्तुओं का इस्तेमाल हुआ करता था। उन दिनों हमारे यहां धान की ही खेती प्रमुख रूप से होती थी, सो मुख्य भोजन चावल ही हुआ करता था। सामान्य तौर पर रोज ही दिन या रात में भात और विशेष अवसर पर खीर। तब हर परिवार में दो-चार गाय-भैंस-बैल निश्चित रूप से होते थे, ऐसे में दूध-दही की चिंता की बात ही नहीं थी। गन्ना की भी खेती होती थी और कोल्हू से खुद ही गुड़ बनाया जाता था।
इस तरह चावल, चिवड़ा, गुड़, दूध-दही सभी चीजें घर में ही होतीं। शायद इसीलिए हमारे यहां मकर संक्रांति पर चिवड़ा-दही और लाई-कसार-तिलबा आदि खाने की परंपरा रही है। घरों में मकर संक्रांति के कई दिन पहले से ही चिवड़ा के लिए ओखली और मूसल के बीच धान की धुनाई शुरू हो जाती। लाई-कसार-तिलबा आदि के लिए गुड़ की चाशनी बनाना बड़ा मुश्किल भरा काम होता है। हर छह-सात घर के बीच कोई चाची या दादी इसमें निष्णात होती थीं, जिनकी पूछ-परख इस मौके पर बढ़ जाया करती थी। उनके बिजी शिड्यूल का ख्याल रखते हुए 14 जनवरी से एकाध हफ्ता पहले ही घरों में लाई-कसार आदि बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता।
आज से पैंतीस-चालीस साल पहले शहरों में भी हर किसी के लिए रसोई गैस कनेक्शन लेना आसान नहीं था, फिर गांवों में तो इसके बारे में सोच भी नहीं सकते थे। तब गांवों में संयुक्त परिवार हुआ करते थे, ऐसे में महिलाओं का काफी समय चूल्हे के पास ही जैसे तैसे उपलब्ध जलावन से भोजन पकाने में बीतता था। ऐसे में मकर संक्रांति पर लाई आदि बनाने का अतिरिक्त बोझ उन पर आ जाता। इसके लिए बड़ी मात्रा में मूढ़ी (लइआ), चावल आदि को भूनने के लिए अपेक्षाकृत अच्छे जलावन की जरूरत होती थी। चूंकि यह समय खेती-किसानी के लिहाज से अधिक महत्वपूर्ण होता था और परिवार के पुरुष उसी में व्यस्त रहते थे। ऐसे में हम भाई-बहन कुल्हाड़ी आदि लेकर गाछी चल देते और सूखी लकड़ियां काटकर लाते, ताकि मां और चाचियों को लाई-कसार बनाने में सुविधा रहे। इससे उनकी नजरों में हमारा रुतबा बढ़ जाता और हमारी छवि अच्छे बच्चे की बन जाती थी।
बदलते हुए समय के साथ बहुत कुछ पीछे छूट गया।
पच्चीस साल से भी ज्यादा हो गये, मकर संक्रांति पर गांव जाने का सुअवसर नहीं मिल पाया। इस बीच खाने वाली ही नहीं, बनाने वाली पीढ़ी भी बदल गई। अब तो न जाने गांव में भी कैसे मनती होगी मकर संक्रांति...।
कल देर रात फेसबुक वॉल पर तिल के लड्डू की फोटो देखी तो रात भर सपने में खुद को कभी गाछी में लकड़ी काटते तो कभी मकर संक्रांति के दिन तड़के स्नान के बाद गांती बांधे घूरा (अलाव) तापते हुए लाई-तिलबा खाते पाया। नींद खुलने पर इन यादों को शब्दों में संजोने से खुद को नहीं रोक पाया।
ऐसे पड़े नाम
धान को पानी में भिगोने के बाद हल्की आंच पर छोड़ दिया जाता था। सुखाकर उसे कूटने के बाद बने चावल को भूनने पर वह मूढ़ी की तरह फूल जाता, जिसके गोल लड्डू जैसे बनाए जाते, जिसे लाई कहते हैं। चिवड़ा (पोहा) को भूनकर उसकी भी लाई बनाई जाती थी, जिसे चुल्लर कहते। जनेरा (बाजरे की प्रजाति का मोटा अनाज) को भूनकर उसकी भी लाई बनाई जाती। चावल को भूनकर उसका आटा पीसकर उसका कसार बनाया जाता। ये सभी आकार में गोल होते थे, जबकि काले तिल का तिलबा पेड़ा की तरह चिपटा हुआ करता। इन सभी को बनाने में एक चीज जो कॉमन होती थी, वह थी गुड़ की चाशनी।
खिचड़ी के क्या कहने...
मकर संक्रांति पर दिन में चिवड़ा-दही, लाई-तिलबा का जलवा रहता तो शाम में खिचड़ी की खुशबू से घर मह-मह करता। यह खिचड़ी भी मजबूरी वाली खिचड़ी नहीं होती थी कि सब्जी न होने पर या फिर बनाने में आलस के चलते चावल-दाल में हल्दी-नमक डालकर बना ली जाती हो। मकर संक्रांति पर बनने वाली खिचड़ी बहुत ही खास हुआ करती थी। भांति-भांति की सब्जियों, मटर के दानों, आम मसालों के साथ गरम मसाले की संगति और धनिया के पत्तों की खुशबू मकर संक्रांति पर बनने वाली खिचड़ी को वीवीआईपी भोजन का दर्जा दिला देती। ... और घी, दही, पापड़ और अचार रूपी चार यार का साथ मिल जाने पर यह खिचड़ी इतनी स्वादिष्ट हो जाती कि लोग अंगुलियां चाटते रह जाते। इस खास खिचड़ी का इंतजार हम अगली मकर संक्रांति तक करते थे।
चलते-चलते
लहरा की लहर...
इस मौसम की बात करें तो हमारी बाल मंडली कई बार चने और खेसारी के खेत की ओर भी कूच करती। वहां पड़ोस के खेत से तोड़ी गई हरी मिर्च और घर से साथ में ले जाए गए नमक और अचार मिलाकर केले के पत्ते पर तैयार किए गए खेसारी और चने के लहरा की दावत उड़ाई जाती। उसका स्वाद याद कर आज भी बरबस ही मुंह में पानी भर आता है।