Saturday, January 9, 2021

तिलबा, लाई, चुल्लर, कसार....

तिलबा, लाई, चुल्लर, कसार...मकर संक्रांति के उपहार

बचपन के दिन भी क्या दिन थे। तब बिहार में स्कूल का सेशन जनवरी से दिसंबर तक होता था। दिसंबर के दूसरे हफ्ते तक वार्षिक परीक्षा संपन्न हो जाती और 22-23 दिसंबर तक रिजल्ट घोषित कर दिया जाता। इसके बाद बड़ा दिन की छुट्टी शुरू हो जाती जो नववर्षारम्भ तक चलती। कहने को तो 2 जनवरी को स्कूल खुल जाते, लेकिन हर विद्यार्थी के लिए अगली कक्षा की किताबें-कॉपी आदि समय से खरीदना संभव नहीं हो पाता था। इसलिए पढ़ाई की विधिवत शुरुआत गणतंत्र दिवस के बाद ही हो पाती थी। ऐसे में हम बच्चों के लिए यह समय छुट्टियां मनाने का ही हुआ करता था। इस दौरान कभी धान की कटाई के समय खेतों का रुख करना तो कभी खलिहान में धान की दउनी (थ्रेशिंग) के समय मेहा में बंधे बैलों को हांकना हमारा मुख्य शगल हुआ करता था।

सनातन परंपरा के अनुसार हिंदू धर्म के पर्व-त्योहार हिंदी महीनों के हिसाब से मनाए जाते हैं। होली कभी मार्च में आती है तो कभी अप्रैल में, दिवाली कभी अक्टूबर की शुरुआत में मनाई जाती है तो कभी नवंबर के अंतिम हफ्ते तक इंतजार करना पड़ता है। मगर यह पक्का था कि मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही मनाई जाएगी। इसलिए दिसंबर खत्म होने के साथ ही हम मकर संक्रांति के दिन गिनने लगते थे।

हमारा देश शुरू से ही कृषि प्रधान रहा है। पहले लोगों के पास नकदी की आमदनी न के बराबर थी। इसलिए आम जनजीवन में बाजार का दखल कम ही हुआ करता था। जिस इलाके में जिस फसल की बहुतायत होती थी, वहां के पर्व-त्योहार से लकर यज्ञ-प्रयोजन तक में भी उन्हीं वस्तुओं का इस्तेमाल हुआ करता था। उन दिनों हमारे यहां धान की ही खेती प्रमुख रूप से होती थी, सो मुख्य भोजन चावल ही हुआ करता था। सामान्य तौर पर रोज ही दिन या रात में भात और विशेष अवसर पर खीर। तब हर परिवार में दो-चार गाय-भैंस-बैल निश्चित रूप से होते थे, ऐसे में दूध-दही की चिंता की बात ही नहीं थी। गन्ना की भी खेती होती थी और कोल्हू से खुद ही गुड़ बनाया जाता था।

इस तरह चावल, चिवड़ा, गुड़, दूध-दही सभी चीजें घर में ही होतीं। शायद इसीलिए हमारे यहां मकर संक्रांति पर चिवड़ा-दही और लाई-कसार-तिलबा आदि खाने की परंपरा रही है। घरों में मकर संक्रांति के कई दिन पहले से ही चिवड़ा के लिए ओखली और मूसल के बीच धान की धुनाई शुरू हो जाती। लाई-कसार-तिलबा आदि के लिए गुड़ की चाशनी बनाना बड़ा मुश्किल भरा काम होता है। हर छह-सात घर के बीच कोई चाची या दादी इसमें निष्णात होती थीं, जिनकी पूछ-परख इस मौके पर बढ़ जाया करती थी। उनके बिजी शिड्यूल का ख्याल रखते हुए 14 जनवरी से एकाध हफ्ता पहले ही घरों में लाई-कसार आदि बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता।

आज से पैंतीस-चालीस साल पहले शहरों में भी हर किसी के लिए रसोई गैस कनेक्शन लेना आसान नहीं था, फिर गांवों में तो इसके बारे में सोच भी नहीं सकते थे। तब गांवों में संयुक्त परिवार हुआ करते थे, ऐसे में महिलाओं का काफी समय चूल्हे के पास ही जैसे तैसे उपलब्ध जलावन से भोजन पकाने में बीतता था। ऐसे में मकर संक्रांति पर लाई आदि बनाने का अतिरिक्त बोझ उन पर आ जाता। इसके लिए बड़ी मात्रा में मूढ़ी (लइआ), चावल आदि को भूनने के लिए अपेक्षाकृत अच्छे जलावन की जरूरत होती थी। चूंकि यह समय खेती-किसानी के लिहाज से अधिक महत्वपूर्ण होता था और परिवार के पुरुष उसी में व्यस्त रहते थे। ऐसे में हम भाई-बहन कुल्हाड़ी आदि लेकर गाछी चल देते और सूखी लकड़ियां काटकर लाते, ताकि मां और चाचियों को लाई-कसार बनाने में सुविधा रहे। इससे उनकी नजरों में हमारा रुतबा बढ़ जाता और हमारी छवि अच्छे बच्चे की बन जाती थी।
बदलते हुए समय के साथ बहुत कुछ पीछे छूट गया।

 पच्चीस साल से भी ज्यादा हो गये, मकर संक्रांति पर गांव जाने का सुअवसर नहीं मिल पाया। इस बीच खाने वाली ही नहीं, बनाने वाली पीढ़ी भी बदल गई। अब तो न जाने गांव में भी कैसे मनती होगी मकर संक्रांति...।
कल देर रात फेसबुक वॉल पर तिल के लड्डू की फोटो देखी तो रात भर सपने में खुद को कभी गाछी में लकड़ी काटते तो कभी मकर संक्रांति के दिन तड़के स्नान के बाद गांती बांधे घूरा (अलाव) तापते हुए लाई-तिलबा खाते पाया। नींद खुलने पर इन यादों को शब्दों में संजोने से खुद को नहीं रोक पाया।

ऐसे पड़े नाम

धान को पानी में भिगोने के बाद हल्की आंच पर छोड़ दिया जाता था। सुखाकर उसे कूटने के बाद बने चावल को भूनने पर वह मूढ़ी की तरह फूल जाता, जिसके गोल लड्डू जैसे बनाए जाते, जिसे लाई कहते हैं। चिवड़ा (पोहा) को भूनकर उसकी भी लाई बनाई जाती थी, जिसे चुल्लर कहते। जनेरा (बाजरे की प्रजाति का मोटा अनाज) को भूनकर उसकी भी लाई बनाई जाती। चावल को भूनकर उसका आटा पीसकर उसका कसार बनाया जाता। ये सभी आकार में गोल होते थे, जबकि काले तिल का तिलबा पेड़ा की तरह चिपटा हुआ करता। इन सभी को बनाने में एक चीज जो कॉमन होती थी, वह थी गुड़ की चाशनी।

खिचड़ी के क्या कहने...
मकर संक्रांति पर दिन में चिवड़ा-दही, लाई-तिलबा का जलवा रहता तो शाम में खिचड़ी की खुशबू से घर मह-मह करता। यह खिचड़ी भी मजबूरी वाली खिचड़ी नहीं होती थी कि सब्जी न होने पर या फिर बनाने में आलस के चलते चावल-दाल में हल्दी-नमक डालकर बना ली जाती हो। मकर संक्रांति पर बनने वाली खिचड़ी बहुत ही खास हुआ करती थी। भांति-भांति की सब्जियों, मटर के दानों, आम मसालों के साथ गरम मसाले की संगति और धनिया के पत्तों की खुशबू मकर संक्रांति पर बनने वाली खिचड़ी को वीवीआईपी भोजन का दर्जा दिला देती। ... और घी, दही, पापड़ और अचार रूपी चार यार का साथ मिल जाने पर यह खिचड़ी इतनी स्वादिष्ट हो जाती कि लोग अंगुलियां चाटते रह जाते। इस खास खिचड़ी का इंतजार हम अगली मकर संक्रांति तक करते थे।  

चलते-चलते
लहरा की लहर...

इस मौसम की बात करें तो हमारी बाल मंडली कई बार चने और खेसारी के खेत की ओर भी कूच करती। वहां पड़ोस के खेत से तोड़ी गई हरी मिर्च और घर से साथ में ले जाए गए नमक और अचार मिलाकर केले के पत्ते पर तैयार किए गए खेसारी और चने के लहरा की दावत उड़ाई जाती। उसका स्वाद याद कर आज भी बरबस ही मुंह में पानी भर आता है।

चित्र इंटरनेट से साभार

वेदना-संवेदना

कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी ने वर्ष 2020 में हम सभी को घरों में कैद रहने के लिए विवश कर दिया था। अब नया साल 2021 दस्तक दे चुका है और हम सभी उन पुरानी कड़वी यादों को भुलाकर एक नई आशा-उम्मीद से भर गए हैं। आखिर कब तक सीमाओं में बंधा रहा है मानव।  

    आज दोपहर में एक मित्र से मिलने गया। वे मोबाइल पर किसी से बात कर रहे थे। आजकल यह सब बहुत आम है। मैं उनके फ्री होने का इंतजार करने लगा। चूंकि वे ईयर फोन लगाकर बात कर रहे थे, ऐसे में इकतरफा संवाद सुनने से पूरा माजरा मेरी समझ में आना मुश्किल था। मगर मित्र के चेहरे पर आते-जाते भाव यह इशारा जरूर कर रहे थे कि मेरी उपस्थिति को इग्नॉर करते हुए लंबी बातचीत करना उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था। हालांकि संवाद का सिरा जहां तक मैं पकड़ पाया, उससे स्पष्ट था कि मेरे मित्र बेहद संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे और उसे बीच में छोड़ना संभव नहीं था। 

खैर...थोड़ी देर के बाद बातचीत का सिलसिला बंद करते हुए उन्होंने बताया कि गांव में पड़ोस के एक बुजुर्ग सज्जन का कल अचानक निधन हो गया। वे बड़े ही सरल और सौम्य स्वभाव के धनी थे। कभी किसी ने ऊंची आवाज में बातें करते उन्हें नहीं सुना। बच्चों के प्रति उनके सहज स्नेह भाव का तो कहना ही क्या। उनका दरवाजा बहुत बड़ा था। टोले भर के बच्चे अक्सर वहां खेलने आते थे। गांव में जरूरी नहीं कि संपन्न लोगों के घरों में भी हमेशा मिठाइयां रहती हों, मगर प्रकृति अपना खजाना खुले हाथों से गांवों में लुटाती है सो मौसम के हिसाब से आम, अमरूद, कटहल जैसे फल तो घर में रहते ही थे। ऐसे में वे दरवाजे पर खेलने आए बच्चों को बिना कोई फल खिलाए नहीं लौटने नहीं देते थे। 

यह सब सुनाते-सुनाते मेरे मित्र की आवाज भर्रा गई और वे अपने आंसुओं पर काबू नहीं रख सके। " जातस्य मृत्योर्ध्रुवम"  का हवाला देकर मैंने उन्हें चुप कराया, लेकिन उनकी यह संवेदनशीलता मुझे अंदर तक झकझोर गई।  पहले कॉलेज-यूनिवर्सिटी की पढ़ाई और फिर दाल-रोटी के चक्कर में चक्करघिन्नी बने बिहार के लाखों युवाओं की तरह मेरे ये मित्र भी बीस-पचीस साल से माता-पिता, गांव-घर सबसे दूर विभिन्न महानगरों में रहने को विवश हैं। इसके बावजूद गांव में पड़ोस के किसी आत्मीय बुजुर्ग के आकस्मिक निधन की वेदना को आंखों के रास्ते आंसुओं में विसर्जित करना आसान नहीं है। संवेदनाओं की धरातल से गहराइयों से जुड़ा व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। 

इसी के साथ मुझे एक पुराना वाकया याद आ गया। तब मोबाइल नया-नया आया था और स्मार्ट होने की ओर कदम बढ़ा रहा था। लोग अपने मोबाइल में तरह-तरह के रिंग टोन सेट करके खुद को भीड़ से अलग दिखाने की कोशिश करते थे। एक परिचित के पिताजी का निधन हो गया था। दो-तीन दिन बाद पता चलने पर औपचारिकतावश फोन किया तो उनके मोबाइल पर रिंग टोन के रूप में उस समय का एक फूहड़ गीत सुनाई दिया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। अस्तु, उनके फोन उठाने पर जब मैंने उनके पिता के निधन पर संवेदना जताई तो वे गीता का पूरा उपदेश झाड़ने लगे कि क्षणभंगुर शरीर का त्याग तो करना ही था। सुनकर ऐसा लगा जैसे वे पिता के देहत्याग का इंतजार ही कर रहे थे।

5 जनवरी 2021 
जयपुर

इस कदर चोट खाए हुए हैं...


मानव को अस्तित्व में आए सदियां बीत गईं, मगर अफसोस... आज तक हम आधी आबादी को सही और सुरक्षित वातावरण मुहैया नहीं करा पाए हैं। कदम-दर-कदम कवायद जारी है। इसी कड़ी में महिलाओं को सुरक्षित सफर की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए यूपी रोडवेज ने पिंक सेवा शुरू की। पहले ये बसें केवल महिलाओं के लिए ही थीं, लेकिन खर्च निकलने लायक भी सवारियां न मिलने के कारण काफी दिनों तक घाटा उठाने के बाद पुरुषों को भी इसमें सफर की अनुमति दे दी गई। एक बार मुझे भी इस बस में नवाबों की नगरी लखनऊ से प्रेम की नगरी आगरा तक की यात्रा का सुअवसर मिला। उम्र के करीब चार दशकों की सीढियां चढ़ चुका ड्राइवर इस नौकरी को अपनी नियति मान चुका था। उसकी पहनी खाकी वर्दी इसकी मुनादी कर रही थी। मगर 22-25 साल का सुदर्शन गोरा गबरू जवान कंडक्टर भरसक इसे झुठलाने की कोशिश करता दिख रहा था।  वह अपने अरमानों की उड़ान को बखूबी जारी रखे था। 
यूपी रोडवेज की बसों में ड्राइवर के पीछे वाली दो सीटें माननीय सांसदों-विधायकों के लिए आरक्षित होती हैं। बात दीगर है कि चार्टर्ड प्लेन में चलने की हैसियत रखने वाले आज के सांसदों-विधायकों के साथ वाले भी 20-25 लाख की लग्जरी कारों में चलते हैं। ऐसे में यह सीट पूरी तरह से कंडक्टर-ड्राइवर के विवेकाधीन होती है और वे अपने उच्चाधिकारियों या फिर अपनी मर्जी से यह सीट अपने चाहने वालों को ऐन मौके पर आवंटित-समर्पित कर देते हैं। सांसद-विधायक के लिए आवंटित सीट के समानांतर और गेट के जस्ट पीछे वाली सीट कंडक्टर के लिए होती है, ताकि वह गाहे-बगाहे जरूरत पड़ने पर बाईं ओर देखकर ड्राइवर को बता सके।

मगर जैसा कि मैंने कहा, आज की बेरोजगारी के माहौल से भयभीत यह नौजवान शायद परिवार वालों के दबाव में आकर कंडक्टर की नौकरी कर तो रहा था, मगर वह इसे अपनी नियति मानने को कतई तैयार नहीं था। यही वजह थी कि कंडक्टर के लिए निर्धारित यूनिफॉर्म के बजाय वह जींस-टीशर्ट में था। बस का राजा तो कंडक्टर ही होता है, सो सांसद-विधायक वाली एक सीट उसने एक खूबसूरत युवती को दे दी थी, जिसकी बातों से उसकी नफासत और लियाकत बरबस ही महसूस की जा सकती थी...और मैं यह सब काफी नजदीक से इसलिए महसूस कर पा रहा था क्योंकि मैं उसके बिल्कुल पीछे वाली सीट पर बैठा था।

ऐसा बिंदास कंडक्टर जो खुद को कुछ अलग दिखाने की मानसिकता से लबरेज हो, वह भला कंडक्टर के लिए निर्धारित सीट पर कैसे बैठता, सो अपनी सीट की बुकिंग उसने एक अन्य यात्री को कर दी, जिनकी उम्र करीब साठेक साल रही होगी। ….और बस की सवारियों से किराये की वसूली और टिकट चेक करने की कुछ मिनटों की जिम्मेदारी निभाने के बाद युवा कंडक्टर उस युवती के बगल में जाकर बैठ गया। फिर दोनों में बातचीत का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसमें युवती तो खैर कम ही बोल रही थी, लेकिन कंडक्टर अपने बुद्धि-बल-पराक्रम की दास्तानें सुनाते थक नहीं रहा था। मगर अफसोस, प्रेम की यादगार इमारत ताजमहल के सफर पर निकली यह बस अब अपनी मंजिल पर पहुंचने ही वाली थी। हमारे यहां बसें सीधे बस स्टॉप पर ही नहीं रुकतीं, उससे पहले भी कई स्थानों पर यात्रियों को उतारकर मानव सेवा का धर्म निभाती हैं, सो कंडक्टर को न चाहते हुए भी युवती से बातचीत का सिलसिला रोककर यात्रियों को उतारने के लिए आगे आना पड़ता। इसी सिलसिले में गेट खोलने-बंद करने की तरद्दुद उठानी पड़ती। इसी क्रम में उससे गेट के बिल्कुल पीछे वाली इकलौती सीट पर बैठे सज्जन के दाएं पैर में गेट की हल्की सी टक्कर लग गई। कंडक्टर ने सौजन्यतावश सॉरी कहा तो उन्होंने "कोई बात नहीं" कहकर उसका अहसान चुकाना चाहा , लेकिन जब कंडक्टर की गलती से दुबारा उनके पैर में चोट लगी और कंडक्टर ने पुनः सॉरी कहा तो उनका दर्द जुबां पर आ गया। बोले, कोई बात नहीं....दिल पर तो पहले भी कई बार खा चुका हूं, इस बार पैर पर भी सही। नौजवान कंडक्टर हाजिरजवाब था। उसने कहा-अंकल, हमारी उम्र में दिल पर चोट खाई होगी। इस पर वे सज्जन बोले, बेटा, दिल पर चोट खाने की कोई उम्र नहीं होती। यह मौका इस उम्र में भी मिल जाए तो अचरज नहीं किया करते। हां, एक बात जरूर कहना चाहता हूं कि मोहब्बत में सिर्फ माशूका ही दिल पर चोट नहीं देती, जिंदगी भी कई बार ऐसी चोट दे जाती है, जिससे उबरना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होता है।

कल रात फेसबुक पर एक मित्र की वॉल पर चस्पा यह गजल " इश्क में हम तुम्हें क्या बताएं..." सुनी तो पिंक बस का अपना वह  सफर बरबस ही याद आ गया।

15 दिसंबर 2020 जयपुर


Thursday, November 19, 2020

... वो तो मैंने झूठ बोला था

वो तो मैंने झूठ बोला था...

आम दिनों में हमारे देश में जितने लोग रोजाना ट्रेन में सफर करते हैं, कई देशों की कुल आबादी उससे कहीं कम है। ऐसे में ट्रेन के सफर के दौरान भांति-भांति के अनुभव होते रहते हैं। कुछ सहयात्रियों के व्यवहार से तो कुछ भारतीय रेलवे के सौजन्य से।  फरवरी में भांजी की शादी में बिहार गया था, फिर होली में जयपुर गया था। उसके बाद से तो कोरोनावायरस की वैश्विक महामारी ने सब कुछ उलट पुलट कर रख दिया। लंबे समय तक ट्रेनों के पहिए थमे रहे। अब कहीं जाकर इक्की-दुक्की ट्रेन शुरू हो पाई है। हर रूट पर अमूमन पुरानी ट्रेनों को ही नई बोतल में पुरानी शराब की तरह पेश किया जा रहा है। 
पिछले दिनों इसी तर्ज पर कई ट्रेनों को चलाने की घोषणा हुई तो मैंने भी दीपावली पर ‌लखनऊ से जयपुर जाने के लिए न्यू जलपाईगुड़ी-उदयपुर सिटी एक्सप्रेस साप्ताहिक स्पेशल ट्रेन में रिजर्वेशन करवा लिया था। कुल मिलाकर सफर अच्छा रहा, मगर यह रेलवे का कोई चमत्कार नहीं था, रूट पर ट्रेनें ही नहीं थीं, सो डिस्टर्बेंस की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। वापसी में लखनऊ से जयपुर के लिए मेरी अनचाही फेवरेट ट्रेन मरुधर एक्सप्रेस ही बतौर स्पेशल ट्रेन इकलौती ट्रेन थी, सो दीपावली के अगले दिन वापसी के लिए इसमें रिजर्वेशन कराने की मजबूरी थी।
खैर, सब कुछ ठीक चल रहा था कि दीपावली की सुबह साढ़े नौ बजे एसएमएस आया कि अपरिहार्य कारणों से 15 नवंबर को जोधपुर से वाराणसी जाने वाली मरुधर एक्सप्रेस स्पेशल ट्रेन कैंसिल कर दी गई है। असुविधा के लिए खेद है। मैसेज पढ़ते ही मुझे दिन में ही तेरहों तारेगण नजर आने लगे। समझ नहीं पा रहा था कि कैसे जाना हो पाएगा। अवकाश के बाद निश्चित समय पर न लौटने से अविश्वास की स्थिति पैदा हो जाती है और वजह चाहे जो कुछ भी हो, यह मुझे पसंद नहीं है। विकल्पों पर माथापच्ची में लगा रहा। इंटरनेट पर जयपुर ‌से लखनऊ के लिए न तो यूपी रोडवेज की कोई बस दिख रही थी और न ही राजस्थान रोडवेज की। ऐसे में जयपुर से आगरा और फिर वहां से लखनऊ की दौड़ लगाने की प्लानिंग के अलावा और कोई रास्ता नहीं था।  यही सब सोच-विचार में लगा था कि करीब ग्यारह बजे रेलवे का एसएमएस आया कि 15 नवंबर को जोधपुर-वाराणसी मरुधर एक्सप्रेस स्पेशल ट्रेन के कैंसिलेशन का मैसेज तकनीकी गड़बड़ी के कारण डिलीवर हो गया था। यह मैसेज पढ़ने के बाद जान में जान आई कि अब अनावश्यक भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ेगी। 
...मगर यह मैसेज मेरे जैसे हजारों यात्रियों के पास पहुंचा होगा और न जाने उन्हें कितनी मानसिक यंत्रणा झेलनी पड़ी होगी। तय सफर में अचानक कोई बदलाव ऐसे ही परेशान करने वाला होता है और कोरोना काल में इस तरह की बाध्यता किसी को किस कदर परेशान कर सकती है, इसकी कल्पना ही विचलित कर देती है। ऐसे में भारतीय रेलवे के जिम्मेदारों को कोई भी मैसेज भेजने से पहले अच्छी तरह से सोच लेना चाहिए। यह किसी फिल्मी सीन का गाना नहीं है कि आप सॉरी कहकर निकल जाएं...वो तो मैंने झूठ बोला था।

Monday, August 24, 2020

कंडक्टर की कमाई

कंडक्टर की कमाई

बिहार के वैशाली जिले के बाजितपुर गांव में पश्चिमी छोर पर स्थित हमारे घर के पास मील का पत्थर लगा था। ऐसा ही अगला पत्थर मिडिल स्कूल के पास भी था। उस समय सड़कों की लंबाई किलोमीटर के बजाय मील में ही नापी जाती थी। सो प्राइमरी से मि‌डिल स्कूल में जाने पर मील के पत्थर से पहला वास्ता पड़ा और यह भी पक्का हो गया कि अब मुझे रोज दो मील पैदल चलना होगा। उसके बाद पातेपुर हाई स्कूल में पढ़ाई के दौरान करीब पांच साल तक रोजाना लगभग तीन कोस पैदल चलना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया। मुजफ्फरपुर में भी कॉलेज की पढ़ाई के दौरान भी कदमताल जारी रही। 
... और फिर रोजी-रोटी के सिलसिले में जारी अनवरत सफर के दौरान ये मील के पत्थर जीवन के हमसफर बन गए। बात दीगर है कि इस बीच बसें और रेलगाड़ियां भी पैरों का साथ निभाती रहीं।

प्राइमरी स्कूल से मिडिल स्कूल में जाने पर दो महत्वपूर्ण खासियतें महसूस हुईं। पहली, प्राइमरी स्कूल में हम बच्चे ही प्रार्थना के पहले दोनों कमरों और बाहरी हिस्से की सफाई करते थे, जबकि मिडिल स्कूल में यह काम द्वारपाल शुक्कन ठाकुर के जिम्मे था। वे स्कूल परिसर में लगे फूलों के पौधों की देखरेख भी बड़े मनोयोग से किया करते थे। निर्मल हृदय व सरल स्वभाव के धनी शुक्कन ठाकुर को हम बच्चों के भविष्य की भी चिंता रहती थी। यही वजह थी कि परीक्षा के दिनों में वे प्रार्थना के दौरान कतार में खड़े हम विद्यार्थियों के माथे पर बतौर शगुन दही का टीका लगाते थे।

मिडिल स्कूल की दूसरी खासियत वहां की मिनी विज्ञान प्रयोगशाला थी। प्रधानाचार्य के कमरे के एक बक्से में बंद इस प्रयोगशाला का बच्चों में गजब का क्रेज था। हम बच्चे प्रयोग करके दिखाने के लिए विज्ञान शिक्षक श्री श्यामनंदन राय की खुशामद करते रहते। महीने-दो महीने में जब वे प्रसन्न होते तो कई प्रयोग करके दिखाते। इस दौरान बैटरी से बल्व जलाने का प्रयोग दिखाते समय वे बिजली के गुड कंडक्टर व बैड कंडक्टर कारकों के बारे में बताते। इससे पहले तो मैं यही जानता था कि बस में किराया वसूलने वाले को ही कंडक्टर कहते हैं। 

खैर, कंडक्टर शब्द की बात आने पर गणेश चाचा का चेहरा सामने आ जाता। बचपन के दिनों में सबसे पहले बतौर कंडक्टर उन्हें ही देखा था। जिंदादिल स्वभाव के धनी गणेश चाचा अपनी हाजिरजवाबी से हर किसी का दिल जीत लेते थे। लोगों की नकल उतारने में भी उनकी महारत थी। अपनी इस विशेष अदा से वे किसी भी महफिल में छा जाते। अफसोस, पिछले दिनों वे गंभीर रूप से बीमार हुए और परिवार वालों के अथक प्रयासों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। 

कोरोना काल में इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए लोग जहां तरह-तरह के जतन कर रहे हैं, वहीं इन उपायों के साथ ही मैं फोन के जरिए बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद और मित्रों की शुभकामनाओं के सहारे खुद को बूस्ट अप करता हूं।  ऐसे ही कल गांव के एक नौजवान से फोन पर बातचीत के दौरान गणेश चाचा की चर्चा छिड़ते ही उसकी आवाज रूंध सी गई। पूछने पर उसने बताया कि कॉलेज में पढ़ाई के दौरान और उसके बाद भी प्रतियोगिता परीक्षा आदि के लिए कहीं जाने के लिए यदि कभी वह उस बस में चढ़ता, जिसमें गणेश चाचा कंडक्टर होते, तो वे उससे किराया नहीं लेते थे। रास्ते में बस कहीं रुकती तो कभी समोसा, कभी भूंजा, कभी खीरा-नारियल आदि खिलाते। यही नहीं, उतरते समय जेब में पांच-दस रुपये भी रख देते। बता नहीं सकता, उन पैसों की कितनी अधिक अहमियत थी उन दिनों मेरे लिए।

उसकी बातें सुनने के बाद गणेश चाचा की सदाशयता के बारे में जानकर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गई। उस नौजवान की तरह और न जाने कितने लोग होंगे, जिनकी ऐसी ही मदद गणेश चाचा ने अवश्य ही की होगी। अच्छे से अच्छे निवेशकर्ता भी अपनी कमाई के ऐसे सर्वोत्तम निवेश के बारे में सोच नहीं पाते होंगे, जिसका सुफल इस नश्वर शरीर को त्याग देने के बाद भी मिलता रहता है।

कंडक्टर की नौकरी ऐसी नहीं होती कि कोई इसे कॅरिअर बनाने के बारे में सोचे। ...और फिर प्राइवेट बसों के कंडक्टरों की दुश्वारियों का तो कहना ही क्या। रोजाना बस मालिक की धौंस भरी झिड़की सुनने के साथ ही उसे आए दिन सड़क छाप मवालियों की झड़प का भी शिकार होना पड़ता है। महीने में तीस दिन और साल के बारहों महीने नौकरी की भी कोई गारंटी नहीं होती, मगर यह भी बहुत बड़ी हकीकत है कि बस स्टैंड से लेकर रास्ते के पड़ावों तक न जाने कितने ही लोग कंडक्टर की उदारता की बदौलत अपना पेट भरने के साथ ही अपने परिवार का भी भरण-पोषण करते हैं। ...और इनसे मिली दुआओं के रूप में एक कंडक्टर की कमाई किसी भी धन्नासेठ और आला अधिकारी से कहीं अधिक मायने रखती है। अंत में परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि उदारमना, हंसमुख और जिंदादिल स्वर्गीय गणेश चाचा को अपने चरणों में शरणागति प्रदान करें।

Saturday, August 22, 2020

आजु मंगल के दिनमा शुभे हो शुभे...

आजु मंगल के दिनवां शुभे हो शुभे...

आजकल छोटे-बड़े, अमीर-गरीब हर किसी की तमन्ना होती है कि हमारा बच्चा भी अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करे। "प्रातकाल उठि के रघुनाथा। मात पिता गुरु नावहिं माथा।।" की तरह पैर भले मत छुए, लेकिन देर सवेर जगने के बाद गुड मॉर्निंग जरूर बोले। यही वजह है कि कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में अंग्रेजी मीडियम स्कूल खुल गए हैं। माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए खुद का वर्तमान दांव पर लगा देते हैं। मगर अफसोस इन स्कूलों में बच्चों को अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान ही मिल पाता है और हिंदी का उनका ज्ञान...उसके बारे में तो क्या बताऊं। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी प्रधान राज्यों के लाखों बच्चे दसवीं व बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में मातृभाषा हिंदी में ही फेल हो जाते हैं।

...तो मैं कहना चाह रहा था कि आजकल बच्चों की पढ़ाई की शुरुआत ए फॉर एपल, बी फॉर बैट से होती है। खुशी की बात है कि अधिकतर बच्चों को खाने के लिए एपल और खेलने के लिए बैट मिल भी जाता है, इसलिए वे एपल और बैट के निहितार्थ भी समझ सकते हैं, लेकिन आज से करीब 40-45 साल पहले जब हमारी पढ़ाई शुरू हुई थी, तब बच्चों के लिए क्रिकेट के बारे में सोचना भी मुश्किल था, खेलने की तो बात ही छोड़ दें। हर अभ‌ि‍भावक के लिए बच्चे को सेब के दर्शन कराना भी संभव नहीं था। सेब को अंग्रेजी में एपल भी कहते हैं, इसका ज्ञान हमें छठी कक्षा में जाने पर हुआ था। क्योंकि उस जमाने में मिडिल स्कूल में जाने पर छठी कक्षा से ही अंग्रेजी की औपचारिक पढ़ाई शुरू होती थी। वह तो कमाल था गांव के म‌िडिल स्कूल के शिक्षक परमादरणीय महेश ठाकुर जी और पातेपुर हाई स्कूल में अंग्रेजी के स्वनामधन्य शिक्षक श्रद्धेय सोनेलाल बाबू का, जिन्होंने देर से शुरुआत के बावजूद कई पीढ़ियों को अंग्रेजी पढ़ने-समझने लायक बना दिया। 

अस्तु, हमारे जमाने में सामान्य परिवार के बच्चों के लिए आम, अमरूद, अनार आसानी से उपलब्ध थे और पढ़ाई की शुरुआत हिंदी के अक्षर ज्ञान से ही होती थी सो हमने सबसे पहले अ से अनार और आ से आम ही पढ़ा। उस जमाने में 25 पैसे की मनोहर पोथी आती थी। 25-30 पेज की वह छोटी सी पोथी कितनी मनोहर थी, इसका तो अहसास नहीं, मगर हिंदी की संपूर्ण वर्णमाला, ककहरा से लेकर बारह खड़ी, अक्षरों से शब्द बनाना, 1 से लेकर 100 तक गिनती और 20 तक का पहाड़ा हमने उसी से सीखा। 

हमारे साथ के बच्चों ने संडे-मंडे से पहले सोमवार, मंगलवार और जनवरी-फरवरी से पहले चैत-वैशाख ही सीखा था। किफायत में जीने वाले गांव वालों की ज‌िंदगी में किफायत हर कहीं पैबस्त हो जाती है। ऐसे में बोलचाल में भी किफायत की आदत सी हो जाती है और वे सोमवार को सोम, मंगलवार को मंगल कहने लगते हैं। बचपन के दिनों से ही शादी-विवाह के गीत मुझे आकर्षित करते रहे हैं। हमारे यहां ऐसे अवसरों पर एक गीत बड़ा ही कॉमन है- आजु मंगल के दिनमा शुभे हो शुभे... तो यदि मंगलवार को शादी-विवाह का आयोजन होता तब तो बात समझ में आती, लेकिन किसी दूसरे दिन ऐसे आयोजनों में "मंगल के दिनमा..." से ऊहापोह में पड़ जाता कि बुधवार, शुक्रवार या रविवार को "मंगल के दिनमा" कैसे हो गया। तब इस तथ्य से बिल्कुल अनजान था कि मंगल महज एक दिन का ही नाम नहीं, बल्कि मांगलिक आयोजन का भी द्योतक है।

परिवार में धार्मिक माहौल होने से एकादशी, पूर्णिमा आदि की अक्सर चर्चा होती थी। खासकर एकादशी के पारण के मुहूर्त के अनुसार समय की सटीक जानकारी के लिए पड़ोस में किसी घड़ी वाले के पास जाना पड़ता था। सो एकादशी के बारे में तो काफी कम उम्र में ही समझ गया था, मगर आस-पड़ोस में किसी की मृत्यु होने पर क्षौरकर्म के बाद ग्यारहवें-बारहवें दिन को एकादशा-द्वादशा कहे जाने से मैं असमंजस में पड़ जाता। और संयोग से यह एकादशा-द्वादशा यद‌ि एकादशी के दिन या उसके तत्काल बाद आता तो मेरा बाल मन महज "ई" की मात्रा के "आ" में बदल जाने से इसके मायने में आए बदलाव को लेकर उलझन में पड़ जाता। हमारे यहां वर्षा को बरखा कहने का भी चलन है। यहां तक तो ठीक था, लेकिन किसी की मृत्यु के एक वर्ष पूरे होने पर जब बरखी का आयोजन होता, उस समय भी "आ" और "ई" की मात्रा को लेकर मैं दुविधा में पड़ जाया करता था।

गांवों के लोगों में अपनापन की भावना अपेक्षाकृत अधिक प्रगाढ़ होती है। लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में आगे बढ़कर हिस्सा लेते हैं। खासकर किसी के निधन की सूचना मिलने पर अंतिम दर्शनों के लिए कदम सहज ही बढ़ जाया करते हैं। ऐसे में कई बार कई बार मैं भी परिवार के किसी बुजुर्ग के साथ हो लेता। आज से चार दशक पहले गांव में न तो डॉक्टर होते थे और न पास के कस्बे या शहर से उन्हें बुलाने की व्यवस्था थी, जो किसी की मृत्यु की पुष्टि करे। ऐसे में गांव में प्रैक्टिस करने वाले क्वेक ही मरणासन्न व्यक्ति को देखकर उसकी मृत्यु की घोषणा कर देते थे। कई बार टोले-मोहल्ले के कुछ विशेष पढ़े-लिखे तथाकथित "समझदार" यह दायित्व निभाते थे। वह मरणासन्न व्यक्ति की कलाई पकड़कर कुछ महसूस करने की कोशिश करते और फिर घोषणा कर देते- खतम हई खेल...नाड़ी कट गेलई। यह सुनकर मुझे बड़ा अचरज होता था कि कलाई से खून तो निकल नहीं रहा, फिर नाड़ी कैसे कट गई...
आज सुबह एक भाभी से बात की तो उन्होंने गांव में इस साल वर्षा के बजाय बरखा शब्द का इस्तेमाल किया तो बचपन की यादें बरबस ही स्मृति पटल पर हलचल मचाने लगीं तो मैंने इन्हें फेसबुक की दीवार पर टांग देना ही उचित समझा।  

Friday, August 14, 2020

दोस्ती का क्यूआर कोड

एलएस कॉलेज में बीए फर्स्ट ईयर की पढ़ाई शुरू ही हुई थी। विद्यार्थियों का अभी आपस में ढंग से परिचय भी नहीं हो पाया था। तीसरा-चौथा ही दिन रहा होगा। इंग्लिश की क्लास के बाद एक पीरियड लीजर था। इसके बाद साइकोलॉजी की क्लास थी। सो कई विद्यार्थी जाकर साइकोलॉजी की क्लास में बैठ गए। वहीं, कई विद्यार्थी डेस्क पर नोटबुक रखकर बाहर चहलकदमी कर रहे थे। 15-20 मिनट हुए होंगे कि द्वारपाल ने आकर बताया कि साइकोलॉजी वाली मैडम आज नहीं आएंगी। अंतिम पीरियड होने के कारण सभी विद्यार्थियों ने अपने-अपने घर की राह पकड़ ली। मेरी सीट के बगल वाली डेस्क पर एक नोट बुक रखी थी। मैंने थोड़ी देर इंतजार किया और फिर अपनी नोटबुक के साथ ही दूसरी डेस्क वाली नोटबुक भी उठाकर बाहर निकल आया और बरामदे में इंतजार करने लगा। साइकोलॉजी की क्लास के लिए निर्धारित समय से पहले एक विद्यार्थी आए। क्लास में सन्नाटा पसरा था। डेस्क से उनकी नोटबुक भी नदारद थी। उनकी आंखों में कई सवाल तैर रहे थे। तब तक उनकी नोटबुक पर लिखा नाम मैं देख चुका था। मैंने नाम लेकर उन्हें पुकारा और पूरी बात बताते हुए नोटबुक दी। वे बहुत खुश हुए। हम दोनों में परिचय हुआ। पता चला कि उन्होंने मुझसे दो साल पहले मैट्रिक की परीक्षा पास की थी और उसके बाद  टीचर्स ट्रेनिंग करने चले गए। वहां की पढ़ाई पूरी करने के बाद अब कॉलेज का रुख किया है। हम दोनों साथ ही कॉलेज से निकले। वे मुझे साथ लेकर छाता चौक स्थित बंशी स्वीट्स गए और क्रीम रॉल खिलाया। एक अन्य कॉलेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए दो साल मुजफ्फरपुर में रहने के बावजूद मैं पहली बार क्रीम रॉल का लुत्फ उठा रहा था। मैं जहां अपने परिवार से कॉलेज की पढ़ाई के सिलसिले में बाहर रहने वाला पहला लड़का था, वहीं उनके सबसे बड़े भैया पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी कर रहे थे, जबकि दूसरे बड़े भाई यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे और दोनों साथ ही रहते थे। इस वजह से भी हमारे सहपाठी मेरी तुलना में शहर के रहन-सहन से ज्यादा अच्छी तरह वाकिफ थे। वहीं उनके बात-व्यवहार में भी एक अलग सलीका दिखता था। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान एटिकेट्स से लेकर साहित्यिक अभिरुचि तक को विकसित करने में उनसे काफी कुछ सीखने को मिला। ईश्वर की कृपा है कि आज भी मैं उनके संपर्क में हूं और उनसे कुछ न कुछ सीखने का सुअवसर मिलता ही रहता है।  

कॉलेज की पढ़ाई के बाद नौकरी की जद्दोजहद शुरू हो गई थी। किसी भर्ती परीक्षा के लिए बैंक ड्राफ्ट बनवाने के लिए हाजीपुर में स्टेट बैंक में कतार में लगा था। इसी बीच एक हमउम्र नौजवान वहां आया। वह काफी परेशान दिख रहा था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि वह बचपन से ही शिलांग में रहा है। पूर्वोत्तर से ही उसने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और अब शिलांग में प्राइवेट नौकरी कर रहा है। उसका पैतृक गांव वैशाली जिले में है, मगर उसे यहां के बारे में कुछ भी पता नहीं है। इसे संयोग ही कहेंगे कि हमारे गांव के समीपवर्ती बैंक के एक स्टाफ अब हाजीपुर की उसी शाखा में तबादला होकर आ गए थे और उनसे मेरा परिचय भी था। उनकी मदद से उस युवक का बैंक का काम अपेक्षाकृत जल्दी हो गया। तब तक मेरा भी बैंक ड्राफ्ट बन गया था। संयोग से अगले ही महीने मुझे एक भर्ती परीक्षा के सिलसिले में शिलांग जाना था और पूर्वोत्तर का वह इलाका मेरे लिए काफी अनजान और दुर्गम भी था। मैंने जब उससे यह बात बताई तब उसने बड़ी ही सहृदयता से अपना पता दिया। शिलांग जाने पर उनसे मिला। शहर से काफी दूर उनके घर जाने का सुअवसर भी मिला। वहां पूर्वोत्तर के ग्रामीण परिवेश से भी साक्षात्कार हुआ। उनके पिताजी पनबिजली घर में काम करते थे। पहली बार वहां टरबाइन को देखकर महसूस किया कि बिजली में परिवर्तित होने के दौरान पानी कितनी तेजी से चीखता है। अफसोस, उस समय मोबाइल का चलन नहीं था और लैंडलाइन फोन हर किसी के वश की बात नहीं थी, इसल‌िए संपर्क सूत्र छूट गया। हालांकि आज भी उनके साथ खिंचाई गई फोटो उनकी याद दिलाती रहती है। आशा है, जीवन में किसी न किसी मोड़ पर अवश्य ही दुबारा मुलाकात होगी। 

पांच-छह साल पहले की बात है, मरुधर एक्सप्रेस में जयपुर से लखनऊ आ रहा था। ट्रेन रात में बांदीकुई पहुंचती है। वहां मेहंदीपुर बालाजी के दर्शन के बाद लौटने वाले काफी श्रद्धालु यह ट्रेन पकड़ते हैं। सो उन  यात्रियों के आने से नींद बाधित न हो, इसलिए मैं बांदीकुई स्टेशन के बाद ही सोना मुफीद समझता हूं। उस बार भी सोने की तैयारी कर रहा था कि श्रद्धालुओं का एक समूह मेरे कूपे में आया। सभी अपना सामान जमाने के बाद गपियाने में लग गए। उनकी बातों से बेखबर मैं  सोने का उपक्रम करने लगा और न जाने कब नींद आ गई। सुबह जगने के बाद नया ज्ञानोदय के पन्ने पलट रहा था। इसी बीच ऊपर की बर्थ से एक सज्जन उतरे और मुझसे पत्रिका मांगी। बातों ही बातों में परिचय हुआ। पता चला कि वे इंटर कॉलेज के प्राचार्य हैं। हिंदी साहित्य  उनका विषय रहा है। फिर तो विभिन्न मुद्दों पर चर्चा शुरू हो गई। हम दोनों ने एक-दूसरे के फोन नंबर लिए। उनके पूछने पर मैंने बताया कि मैं भी फेसबुक पर हूं। हाथोंहाथ फ्रेंड रिक्वेस्ट के आदान-प्रदान के साथ कन्फर्मेशन की प्रक्रिया पूरी की गई। उनकी फेसबुक वॉल पर सारे आलेख रोमन इंग्लिश में थे। उन्होंने देवनागरी में न लिख पाने की परेशानी बताई तो मैंने अपनी अल्पज्ञता की सीमा में ही निदान सुझा दिया। उन्होंने वादा किया कि अब वे हिंदी में ही लिखेंगे। उनके पास अध्यात्म से लेकर साहित्यिक और जीवन दर्शन के ज्ञान का अकूत भंडार है। ...और तबसे रोज वे तड़के तीन से चार बजे तीन-चार आलेख अपनी फेसबुक वॉल पर पोस्ट कर देते हैं। इससे मेरी ही नहीं, मेरे जैसे सैकड़ों लोगों के जीवन जीने की राह हमवार होती है।  
 
कई अन्य मित्रों के ऐसे भी अनुभव पढ़ने-सुनने में आए हैं जब कुछ ऐसा संयोग बना जब लोग दो जान एक दिल बनकर सदा-सदा के लिए एक-दूसरे के हो गए। एक मित्र की सुनाई आपबीती याद करता हूं। अखबार में काम करने वाली एक लड़की रास्ते में अचानक आई बारिश में बुरी तरह भीगने के बाद दफ्तर पहुंची तो वहां उसके साथ काम करने वाले युवक ने अपना कोट उसे दे दिया। कोट की गरमाहट जीवन में ऐसी घुली कि दोनों आज एक आदर्श पति-पत्नी के रूप में जीवन यापन कर रहे हैं। ऐसे ही एक लड़की ने कॉलेज कैंपस में एक युवक से किसी टीचर की क्लास के बारे में पूछा। युवक ने ना में सिर हिला दिया। लड़की ने खुद जाकर देखा तो उन टीचर की क्लास चल रही थी। लड़की लौटकर आई और गुस्से में झल्लाकर बोली, क्लास तो चल रही है। युवक भी रौ में था। बोल पड़ा-मैं क्या द्वारपाल हूं कि सबकी जानकारी रखूं। बात आई-गई हो गई। लेकिन दोनों को एक-दूसरे को यह अदा ऐसी भाई कि दोनों अग्नि के गिर्द सात फेरे लेकर जनम-जनम के लिए एक-दूजे के हो गए। 
हम सभी के जीवन में पढ़ाई से लकर नौकरी तक, बस और ट्रेन के सफर से लेकर स्थान विशेष पर प्रवास तक, ब्लॉग से लेकर फेसबुक तक...ऐसे कई लोग मिले हैं जो जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। जिनकी मदद से हमारी जिंदगी की गाड़ी फर्राटे भर रही है, वरना न जाने कैसे कहां हिचकोले खाती रहती। ऐसा महसूस होता है कि ऊपर वाले ने हम सभी के अंदर दोस्ती का क्यूआर कोड इंस्टॉल किया हुआ है। जिन दो लोगों के बीच दोस्ती का यह क्यूआर कोड मैच हो जाता है, वे सदा-सर्वदा के लिए दोस्ती के बंधन में बंध जाते हैं। क्या खयाल है आपका...जरूर बताइएगा।