Saturday, September 27, 2008

बचपन के दिन भी क्या दिन थे...


यूं तो बचपन की हर याद संजोने लायक होती है, लेकिन आश्विन के महीने की बात ही कुछ और है। इसे महज संयोग ही कहेंगे कि जिस साल मेरा जन्म हुआ था, उसी साल हमारे गांव में, मेरे घर से महज 150-200 कदम की दूरी पर दुरगा पूजा महोत्सव की शुरुआत हुई। बहुत ही धुंधली सी याद बाकी है जब मेले में मां से मिट्टी का तोता खरीदवाया था। सात-आठ साल की उम्र से लेकर बीए करने के बाद गांव छोड़ने तक की अवधि में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो, जब दुरगा पूजा के दौरान घर से बाहर रहा होऊं। गणेश चतुरथी के तीन-चार दिन बाद प्रतिमाएं बनाने के लिए मिट्टी लाने से ही उत्सवी माहौल की शुरुआत हो जाती थी, जो विजयादशमी पर प्रतिमाओं के विसर्जन तक कायम रहती थी। स्कूल से आने के बाद कुम्हारों के पास बैठकर पुआल से पुतले बनाना, फिर उस पर मिट्टी लपेटना, टुकड़ों में बनी प्रतिमाओं को अपने सामने पूर्ण होते देखना कितना सुखकर था, वर्णन करना मुश्किल है। प्रजापति (कुम्हारों को प्रजापति भी कहा जाता है) के हाथों प्रतिमा को नित नूतन आकार लेते देखना प्रजापिता ब्रह्मा की सृजन कला को देखने सरीखा ही हुआ करता था। कुछ समझ बढ़ी तो पहले तो महज खीरा-मिश्री के प्रसाद की चाहत से घंटों बैठे रहना, फिर दुरगा सप्तशती के मधुर श्लोकों को सुनना भी अच्छा लगने लगा। जब अक्षरबोध हुआ तो शाम को रामचरितमानस के नवाह्नपारायण पाठ में भी हिस्सा लेने लगा। गांवों में मेले ही मनोरंजन के साधन हुआ करते हैं और गांव वालों के पास संसाधन तो होते ही नहीं हैं, सो गांव के युवकों ने नवयुवक संघ बना रखा था, उसके बैनर तले सप्तमी से दशमी तक नाटक खेले जाते थे। पांचवीं-छठी कक्षा तक आते-आते हमें भी नाटक में छोटी-मोटी भूमिका दी जाने लगी। फिर दिन में प्रतिमाओं को गढ़ते हुए देखना और रात में नाटक के रिहर्सल के दौरान खुद को नाटक की भूमिकाओं में ढालने के प्रयास में जी-जान से जुटे रहना। मां सरस्वती की दया से लिखावट थोड़ी अच्छी थी, सो सभी पात्रों के डायलॉग लिखने की जिम्मेदारी भी मुझे ही दी जाने लगी। इसका लाभ हुआ कि खुद के डायलॉग तो याद करने में आसानी होती ही थी, दूसरे पात्रों के डायलॉग भी बिना किसी प्रयास के ही याद हो जाते थे। उम्र बढ़ी तो युवा पीढ़ी ने धीरे-धीरे संन्यास लिया और फिर हम किशोरों-नौजवानों के कंधों पर नाटकों के चयन, निरदेशन, रंगमंच सज्जा, व्यवस्थाएं जुटाने आदि की जिम्मेदारी आई, जिसे हम सभी साथियों ने बखूबी निभाया। वर्ष 1991 के बाद से गांव तो छूट गया, लेकिन वे पल आज तक नहीं भूले। नवरात्र के दस-पंद्रह दिन पहले से लेकर विजयादशमी तक गांव की उन्हीं पुरानी यादों में खोया सा रहता हूं। अवचेतन मन अक्सर रात में सपनों में गांव की सैर करा देता है। पहले पत्रों के माध्यम से गांव में रहने वाले दोस्तों से मेले के बारे में पूछता था, अब भी फोन करके पूछना नहीं भूलता हूं। वर्तमान पीढ़ी के किशोरों-युवाओं में क्रिकेट और फिल्मों के प्रति लगाव बढ़ गया है, लेकिन कला से वे विमुख हो गए हैं। पहले नाटक में असलियत का बोध कराने की कोशिश की जाती थी, अब असली जिंदगी में नाटकीयता हावी हो गई है। जब पता चलता है कि अब मेले में वह रौनक नहीं रही, तो अफसोस होता है। प्रोजेक्टर पर दिखाए जाने वाली फिल्मों में वह आकर्षण नहीं होता जो हम अनगढ़ कलाकारों की अभिनय प्रस्तुतियों में लोगों को मिला करता था। आधुनिकता का प्रवेश सर्वत्र हो चुका है, आज कोलकाता की एक फोटो देखी, जिसमें कलाकार मिट्टी की प्रतिमा को बिजली चालित ड्रायर से सुखा रहा था, तो सारी यादें ताजी हो आईं। मां भगवती की कृपा से सर्वत्र मंगल हो, यही प्रार्थना है।
ऊं जयंती मंगला काली भद्रकालि कपालिनी।
दुरगा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।

Tuesday, September 9, 2008

लक्षावली से सहस्त्रघट तक-बम बम भोले


तीन-चार दिन पहले एक मित्र का फोन आया। उन्होंने शिव मंदिर में सहस्त्रघट का आयोजन रखा था। इसके बाद पंगत प्रसादी की भी व्यवस्था थी। सावन-भादो में राजस्थान के मंदिरों में ऐसे आयोजन आम हैं।
सहस्त्रघट के दौरान जहां अन्य लोग भगवान आशुतोष शिव के जलाभिषेक में लीन थे, मैं कहीं यादों में खो गया था। गांव छोड़े दो दशक से भी अधिक हो चुके हैं, लेकिन गांव से जुड़ी यादें आज भी मानस पटल पर अंकित हैं। गांव वालों की आजीविका का मुख्य साधन खेती ही होती है और खेती के लिए बरसात जरूरी है। किसी साल समय से बरसात नहीं होती थी तो गांव के लोग आपस में विचार-विमर्श करने में जुट जाते थे कि कैसे यह संकट टले और खुशहाली आए। आपस में चंदा एकत्रित कर ब्रह्मस्थान परिसर में लक्षावली महादेव पूजन किया जाता था। चमत्कारों में मेरा विश्वास नहीं है, लेकिन मैं स्वयं इसका साक्षी हूं कि कई बार पूजा संपन्न होते-होते झमाझम बरसात शुरू होने लगती थी। शिव महिमा से अभिभूत लोगों के चेहरे खिल जाते थे और शुरू हो जाती थी धान रोपने की तैयारी। कुछ लोग व्यक्तिगत स्तर पर भी लक्षावली महादेव पूजन का आयोजन करते थे। ऐसा अब भी हो रहा होगा, इसमें कोई दो राय नहीं है।
परंपराएं भले ही भिन्न हों, लेकिन भगवान भोलेदानी सर्वत्र समान रूप से पूजे जाते हैं। पूरी सृष्टि आज भी विश्व हित में हलाहल पीने वाले शिव की ऋणी है। उनके प्रति आस्था का अतिरेक ही है कि जल के देवता वरुण या फिर बारिश के देवता इंद्र की आराधना करने की बजाय लोग भगवान शिव की आराधना करते हैं और फल प्राप्त होने पर झूम-झूम से जाते हैं।