Saturday, May 24, 2008

न आंदोलन का तरीका बदला न सरकारी रवैया


अक्षरज्ञान के साथ ही बच्चों को स्वाधीनता की लड़ाई के किस्से सुनाए जाते हैं, इन्हें प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाता है। साहित्यकारों ने स्वतंत्रता संग्राम पर सैकड़ों कविताएं, कहानियां, नाटक, उपन्यास आदि लिखे हैं। फिल्मकारों ने भी इस पर दर्जनों फिल्में बनाई हैं।
उस दौर में जब अंग्रेजों की हुकूमत थी, आंदोलनकारियों का एकमात्र लक्ष्य उनकी दासता से मुक्ति पाना था। इस दौरान स्वतंत्रता सेनानियों का उद्देश्य फिरंगी सरकार की संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर उसे कमजोर करना भी होता था। इसके जवाब में ब्रिटिश सरकार के अफसर स्वतंत्रता सेनानियों को दंडित करने के साथ आम आदमी पर भी कहर बरपाने से नहीं हिचकते थे। जालियांवाला बाग में जो कुछ हुआ, उसे भुलाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। कुल मिलाकर आमने-सामने की स्थिति होती थी। न आंदोलनकारियों को सरकारी संपत्ति को नुकसान करने से गुरेज होता था, न अंग्रेज सेना को दर्जनों भारतीयों को एक साथ गोलियों से भून देने या उन्हें घोड़ों से रौंद डालने में कोई झिझक।
आज हमारा देश स्वतंत्र है और आजाद देश के लोगों की अपनी-अपनी अपेक्षाएं हैं। हर किसी की अपेक्षाओं को पूरा करना सरकार के वश में भी नहीं है, सो आए दिन आंदोलन होते ही रहते हैं। शुक्रवार 23 मई से राजस्थान में गुर्जर समाज खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने को लेकर आंदोलन शुरू किया है। आंदोलनकारियों ने सबसे पहले रेलमार्ग को अपना निशाना बनाया और डेढ़ किलोमीटर तक पटरियां उखाड़ दीं। इलेक्ट्रिक लाइन और सिग्नलों को तोड़ दिया। सरकारी बसों को भी नुकसान पहुंचाया। अब इन आंदोलनकारियों को कौन समझाए कि जिस राष्ट्रीय संपत्ति को वे नुकसान पहुंचा रहे हैं, उसे उनकी और उनके अन्य भाई-बंधुओं की जेब से ही सही किया जाएगा। इससे आम जनता को जो परेशानी हुई, वह तो अलग मुद्दा है।
अब इसके दूसरे पहलू पर आते हैं। 23 मई को पुलिस गोलीबारी में 17 गुर्जरों की मृत्यु हो गई और 24 मई को भी अब तक 21 गुर्जरों की मौत की खबर है। जिनकी मौत हुई है, वे भी भारतभूमि की ही संतान थे और इस तरह उनका मारा जाना किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। सरकारी तंत्र यह क्यों नहीं समझ पाता कि समस्याओं के समाधान के लिए और भी तरीके हैं।
वैसे भी जो लोग सत्ता में आ जाते हैं, उनका उद्देश्य येन-केन प्रकारेण उसे बचाए रखना होता है। रा’य या राष्ट्र की मूलभूत समस्याओं का समाधान उनके एजेंडे में नहीं होता, यही कारण है कि आजादी के छह दशकों बाद भी हमारे देश में समस्याओं का अंबार लगा हुआ है।
कभी सुना था कि लोकतंत्र में `मुंह खुला और मुट्ठी बंदं ही आंदोलन का सबसे तरीका होता है। जनशक्ति यçद इस तरह खाली हाथ विरोध करे तो सरकार को झुकना ही पड़ता है, लेकिन यह भी बदकिस्मती है कि आंदोलनकारी भी हथियारों से लैस होते हैं और पुलिस पर हमला करने से नहीं हिचकते। खाकी का तो कोई खौफ ही नहीं रहा। आंखों के सामने अपने साथी का कत्लेआम देखकर पुलिस तंत्र भी विवेक खो देता है और उसके बाद जो होता है, वह सबके सामने है। इस पर अफसोस जताने के अलावा कुछ भी नहीं किया जा सकता।
आरक्षण की आग ने अब तक जितना नुकसान कर दिया है, वह तो जगजाहिर है। अब सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि अपने स्वार्थ को भूलकर राष्ट्रहित में इस व्यवस्था को समाप्त करें और ईमानदारीपूर्वक उन सभी बच्चों को बेहतर से बेहतर पढ़ाई की सुविधाएं सरकार की तरफ से उपलब्ध कराई जाएं ताकि वे अपनी किस्मत के साथ राष्ट्र के विकास में भी हाथ बंटा सकें। आखिर कब तक हम वणॅभेद-और वगॅभेद की सीमारेखा खींचते रहेंगे।

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